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Thursday, September 5, 2013

"अमृत भी पा सकता हूँ" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मित्रों!
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
एक गीत
"अमृत भी पा सकता हूँ"
अपना माना है जब तुमको,
चाँद-सितारे ला सकता हूँ । 
तीखी-फीकी, जली-भुनी सी,
सब्जी भी खा सकता हूँ।

दर्शन करके चन्द्र-वदन का,
निकल पड़ा हूँ राहों पर,
बिना इस्तरी के कपड़ों में,
दफ्तर भी जा सकता हूँ।

गीत और संगीत बेसुरा,
साज अनर्गल लगते है,
होली वाली हँसी-ठिठोली,
मैं अब भी गा सकता हूँ।

माता-पिता तुम्हारे मुझको,
अपने जैसे लगते है,
प्रिये तम्हारी खातिर उनको,
घर भी ला सकता हूँ।

जीवन-जन्म दुखी था मेरा,
बिना तुम्हारे सजनी जी,
यदि तुम साथ निभाओ तो,
मैं अमृत भी पा सकता हूँ।

3 comments:

  1. सुंदर प्रस्तुति।।.

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  2. क्या मनुहार है प्यार है ,

    बढती उम्र का दुलार है ,

    एतबार सा एतबार है।

    ReplyDelete

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