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Saturday, January 11, 2014

"नवगीत-कुहरा घना है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
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दिन दुपहरी में दिवाकर अनमना है।
छा रहा मधुमास में कुहरा घना है।।

नीड़ में अब भी परिन्दे सो रहे,
फाग का शृंगार कितना है अधूरा,
शीत से हलकान बालक हो रहे,
चमचमाती रौशनी का रूप भूरा
रश्मियों के शाल की आराधना है।
छा रहा मधुमास में कुहरा घना है।।

सेंकता है आग फागुन में बुढ़ापा,
चन्द्रमा ने ओढ़ ली मोटी रजाई,
खिल नही पाया चमन ऋतुराज में,
टेसुओं ने भी नही रंगत सजाई,
कोप सर्दी का हवाओं में बना है।
छा रहा मधुमास में कुहरा घना है।।

3 comments:

  1. कविता की ठंड से तरो-ताजा हो गए.शानदार.

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  2. बढ़िया प्रस्तुति-
    आभार आदरणीय

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  3. निष्ठुर ठण्ड से सब सहमें रहते हैं ..
    बहुत सुन्दर

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