मना रहे थे लोग जब, होली का त्यौहार। पौत्र रत्न के रूप में, मुझे मिला उपहार।। -- जन्मदिवस पर पौत्र को, देता हूँ आशीश। पढ़-लिखकर बन जाइए, वाणी के वागीश।। -- कुलदीपक के साथ में, बँधी हुई ये आस। तुमसे ही गुलजार है, मेरा ये आवास।। -- सारे जग में देश का, रौशन करना नाम। नयी सोच के साथ में, करना अच्छे काम।। -- कठिन राह को देखकर, नहीं मानना हार। दीर्घ आयु की कामना, करता है परिवार।। -- आगे बढ़ने के लिए, रखो इरादे नेक। उन्नति के खुल जायगें, पथ में द्वार अनेक।। -- दीन-दुखी असहाय का, रखना हरदम ध्यान। देते हैं श्रमशील को, ज्ञान सदा इंसान।। -- गुरू और माता-पिता, आदर के हैं योग्य। जिन पर इनकी हो कृपा, वो ही बने सुयोग्य।। -- |
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Saturday, March 5, 2022
दोहे "पाँच मार्च-मेरे पौत्र का जन्मदिन" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
Tuesday, March 24, 2020
गीत "आता है जब नवसंवतसर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
जब बसन्त का मौसम आता,
गीत प्रणय के गाता उपवन।
मधुमक्खी-तितली-भँवरे भी,
खुश हो करके करते
गुंजन।।
आता है जब नवसंवतसर,
मन में चाह जगाता है,
जीवन में आगे बढ़ने की,
नूतन राह दिखाता है,
होली पर अच्छे लगते हैं,
सबको नये-नये व्यंजन।
मधुमक्खी-तितली-भँवरे भी,
खुश हो करके करते
गुंजन।।
पेड़ और पौधें भी फिर से,
नवपल्लव पा जाते हैं,
रंग-बिरंगे सुमन चमन में,
हर्षित हो मुस्काते हैं,
नयी फसल से भर जाते हैं,
गाँवों में सबके आँगन।
मधुमक्खी-तितली-भँवरे भी,
खुश हो करके करते
गुंजन।।
माता का वन्दन करने को,
आते हैं नवरात्र सुहाने,
तन-मन का शोधन करने को,
गाते भक्तिगीत तराने,
राम जन्म लेते नवमी पर
दुःख दूर करते रघुनन्दन।
मधुमक्खी-तितली-भँवरे भी,
खुश हो करके करते
गुंजन।।
हर्ष मनाते बैशाखी पर,
अन्न घरों में आ जाता है,
कोयल गाती पंचम सुर में,
आम-नीम बौराता है,
नीर सुराही का पी करके,
मन हो जाता है चन्दन।
मधुमक्खी-तितली-भँवरे भी,
खुश हो करके करते
गुंजन।।
देवभूमि अपना भारत है,
आते हैं अवतार यहाँ,
षड्ऋतुओं का होता संगम,
दुनियाँ में है और कहाँ,
भारत की पावन माटी को,
करता हूँ शत्-शत् वन्दन।
मधुमक्खी-तितली-भँवरे भी,
खुश हो करके करते
गुंजन।।
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Friday, March 6, 2015
“फागुन सबके मन भाया है” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री मयंक')
Monday, January 12, 2015
“लोभ-लालच डस रहे हैं” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
कभी कुहरा, कभी सूरज, कभी आकाश में बादल घने हैं। दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।। आसमां पर चल रहे हैं, पाँव के नीचे धरा है, कल्पना में पल रहे हैं, सामने भोजन धरा है, पा लिया सब कुछ मगर, फिर भी बने हम अनमने हैं। दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।। आयेंगे तो जायेंगे भी, जो कमाया खायेंगें भी, हाट मे सब कुछ सजा है, लायेंगे तो पायेंगे भी, धार निर्मल सामने है, किन्तु हम मल में सने हैं। दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।। देख कर करतूत अपनी, चाँद-सूरज हँस रहे हैं, आदमी को बस्तियों में, लोभ-लालच डस रहे हैं, काल की गोदी में, बैठे ही हुए सारे चने हैं। दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।। |
Tuesday, September 30, 2014
""टूटा स्वप्न-गीत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मेरे गाँव, गली-आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
घर के आगे पेड़ नीम का, वैद्यराज सा खड़ा हुआ है।
माता जैसी गौमाता का, खूँटा अब भी गड़ा हुआ है।
टेसू के फूलों से गुंथित, तीनपात की हर डाली है
घर के पीछे हरियाली है, लगता मानो खुशहाली है।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
पीपल के नीचे देवालय, जिसमें घण्टे सजे हुए हैं।
सांझ-सवेरे भजन-कीर्तन,ढोल-मंजीरे बजे हुए हैं।
कहीं अजान सुनाई देती, गुरू-वाणी का पाठ कहीं है।
प्रेम और सौहार्द परस्पर, वैर-भाव का नाम नही है।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
विद्यालय में सबसे पहले, ईश्वर का आराधन होता।
देश-प्रेम का गायन होता, तन और मन का शोधन होता।
भेद-भाव और छुआ-छूत का,सारा मैल हटाया जाता।
गणित और विज्ञान साथ में, पर्यावरण पढ़ाया जाता।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
रोज शाम को दंगल-कुश्ती, और कबड्डी खेली जाती।
योगासन के साथ-साथ ही, दण्ड-बैठकें पेली जाती।
मैंने पूछा परमेश्वर से, जन्नत की दुनिया दिखला दो।
चैन और आराम जहाँ हो, मुझको वह सीढ़ी बतला दो।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
तभी गगन से दिया सुनाई, तुम जन्नत में ही हो भाई।
मेरा वास इसी धरती पर, जिसकी तुमने गाथा गाई।
तभी खुल गयी मेरी आँखें, चारपाई दे रही गवाही।
सुखद-स्वप्न इतिहास बन गया, छोड़ गया धुंधली परछाई।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अब तो बस अञ्जानापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, बसा हुआ दीवानापन है।।
कितना बदल गया है भारत, कितने बदल गये हैं बन्दे।
मानव बन बैठे हैं दानव, तन के उजले, मन के गन्दे।
वीर भगत सिंह के आने की, अब तो आशा टूट गयी है।
गांधी अब अवतार धरेंगे, अब अभिलाषा छूट गयी है।
सन्नाटा फैला आँगन मेंआसमान में सूनापन है।
चारों तरफ प्रदूषण फैला, व्यथित हो रहा मेरा मन है।।
मेरे गाँव, गली आँगन में, अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में, कहीं नही बेगानापन है।।
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Saturday, August 16, 2014
"ग़ज़ल-आइने की क्या जरूरत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
रूप इतना खूबसूरत
आइने की क्या जरूरत
आ रहीं नज़दीक घड़ियाँ
जब बनेगा शुभमुहूरत
बैठकर जब बात होंगी
दूर होंगी सब कुदूरत
लाख पर्दों में छुपाओ
छिप नहीं पायेगी सूरत
दिल में हमने है समायी
आपकी सुन्दर सी सूरत
आज मेरे चाँद का है
"रूप" कितना खूबसूरत
"रूप" कितना खूबसूरत
Friday, July 4, 2014
"रिश्ते और प्यार बदल जाते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
"रिश्ते और प्यार बदल जाते हैं"
युग के साथ-साथ, सारे हथियार बदल जाते हैं।
नौका खेने वाले, खेवनहार बदल जाते हैं।।
प्यार मुहब्बत के वादे सब निभा नहीं पाते हैं,
नीति-रीति के मानदण्ड, व्यवहार बदल जाते हैं।
"कंगाली में आटा गीला" भूख बहुत लगती है,
जीवनयापन करने के, आधार बदल जाते हैं।
जप-तप, ध्यान-योग, केबिल, टी.वी.-सी.डी. करते हैं,
पुरुष और महिलाओं के संसार बदल जाते हैं।
क्षमा-सरलता, धर्म-कर्म ही सच्चे आभूषण हैं,
आपाधापी में निष्ठा के, तार बदल जाते हैं।
फैसन की अंधी दुनिया ने, नंगापन अपनाया,
बेशर्मी की ग़फ़लत में, शृंगार बदल जाते हैं।
माता-पिता तरसते रहते, अपनापन पाने को,
चार दिनों में बेटों के, घर-बार बदल जाते हैं।
भइया बने पड़ोसी, बैरी बने ज़िन्दग़ीभर को,
भाई-भाई के रिश्ते और प्यार बदल जाते हैं।
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