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Tuesday, March 24, 2020

गीत "आता है जब नवसंवतसर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

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जब बसन्त का मौसम आता,
गीत प्रणय के गाता उपवन।
मधुमक्खी-तितली-भँवरे भी,
खुश हो करके करते गुंजन।।
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आता है जब नवसंवतसर,
मन में चाह जगाता है,
जीवन में आगे बढ़ने की,
नूतन राह दिखाता है,
होली पर अच्छे लगते हैं,
सबको नये-नये व्यंजन।
मधुमक्खी-तितली-भँवरे भी,
खुश हो करके करते गुंजन।।
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पेड़ और पौधें भी फिर से,
नवपल्लव पा जाते हैं,
रंग-बिरंगे सुमन चमन में,
हर्षित हो मुस्काते हैं,
नयी फसल से भर जाते हैं,
गाँवों में सबके आँगन।
मधुमक्खी-तितली-भँवरे भी,
खुश हो करके करते गुंजन।।
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माता का वन्दन करने को,
आते हैं नवरात्र सुहाने,
तन-मन का शोधन करने को,
गाते भक्तिगीत तराने,
राम जन्म लेते नवमी पर
दुःख दूर करते रघुनन्दन।
मधुमक्खी-तितली-भँवरे भी,
खुश हो करके करते गुंजन।।
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हर्ष मनाते बैशाखी पर,
अन्न घरों में आ जाता है,
कोयल गाती पंचम सुर में,
आम-नीम बौराता है,
नीर सुराही का पी करके,
मन हो जाता है चन्दन।
मधुमक्खी-तितली-भँवरे भी,
खुश हो करके करते गुंजन।।
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देवभूमि अपना भारत है,
आते हैं अवतार यहाँ,
षड्ऋतुओं का होता संगम,
दुनियाँ में है और कहाँ,
भारत की पावन माटी को,
करता हूँ शत्-शत् वन्दन।
मधुमक्खी-तितली-भँवरे भी,
खुश हो करके करते गुंजन।।
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Monday, January 12, 2015

“लोभ-लालच डस रहे हैं” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')


कभी कुहरा, कभी सूरज, कभी आकाश में बादल घने हैं।
दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।।

आसमां पर चल रहे हैं, पाँव के नीचे धरा है,
कल्पना में पल रहे हैं, सामने भोजन धरा है,
पा लिया सब कुछ मगर, फिर भी बने हम अनमने हैं।
दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।।

आयेंगे तो जायेंगे भी, जो कमाया खायेंगें भी,
हाट मे सब कुछ सजा है, लायेंगे तो पायेंगे भी,
धार निर्मल सामने है, किन्तु हम मल में सने हैं।
दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।।

देख कर करतूत अपनी, चाँद-सूरज हँस रहे हैं,
आदमी को बस्तियों में, लोभ-लालच डस रहे हैं,
काल की गोदी में, बैठे ही हुए सारे चने हैं।
दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।। 

Tuesday, September 30, 2014

""टूटा स्वप्न-गीत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे गाँवगली-आँगन मेंअपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी मेंकहीं नही बेगानापन है।।

घर के आगे पेड़ नीम कावैद्यराज सा खड़ा हुआ है।
माता जैसी गौमाता काखूँटा अब भी गड़ा हुआ है।
टेसू के फूलों से गुंथिततीनपात की हर डाली है
घर के पीछे हरियाली हैलगता मानो खुशहाली है।
मेरे गाँवगली आँगन मेंअपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी मेंकहीं नही बेगानापन है।।

पीपल के नीचे देवालयजिसमें घण्टे सजे हुए हैं।
सांझ-सवेरे भजन-कीर्तन,ढोल-मंजीरे बजे हुए हैं।
कहीं अजान सुनाई देतीगुरू-वाणी का पाठ कहीं है।
प्रेम और सौहार्द परस्परवैर-भाव का नाम नही है।
मेरे गाँवगली आँगन मेंअपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी मेंकहीं नही बेगानापन है।।

विद्यालय में सबसे पहलेईश्वर का आराधन होता।
देश-प्रेम का गायन होतातन और मन का शोधन होता।
भेद-भाव और छुआ-छूत का,सारा मैल हटाया जाता।
गणित और विज्ञान साथ मेंपर्यावरण पढ़ाया जाता।
मेरे गाँवगली आँगन मेंअपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी मेंकहीं नही बेगानापन है।।

रोज शाम को दंगल-कुश्तीऔर कबड्डी खेली जाती।
योगासन के साथ-साथ हीदण्ड-बैठकें पेली जाती।
मैंने पूछा परमेश्वर सेजन्नत की दुनिया दिखला दो।
चैन और आराम जहाँ होमुझको वह सीढ़ी बतला दो।
मेरे गाँवगली आँगन मेंअपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी मेंकहीं नही बेगानापन है।।

तभी गगन से दिया सुनाईतुम जन्नत में ही हो भाई।
मेरा वास इसी धरती परजिसकी तुमने गाथा गाई।
तभी खुल गयी मेरी आँखेंचारपाई दे रही गवाही।
सुखद-स्वप्न इतिहास बन गयाछोड़ गया धुंधली परछाई।
मेरे गाँवगली आँगन मेंअब तो बस अञ्जानापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी मेंबसा हुआ दीवानापन है।।

कितना बदल गया है भारतकितने बदल गये हैं बन्दे।
मानव बन बैठे हैं दानवतन के उजलेमन के गन्दे।
वीर भगत सिंह के आने कीअब तो आशा टूट गयी है।
गांधी अब अवतार धरेंगेअब अभिलाषा छूट गयी है।
सन्नाटा फैला आँगन मेंआसमान में सूनापन है।
चारों तरफ प्रदूषण फैलाव्यथित हो रहा मेरा मन है।।
मेरे गाँवगली आँगन मेंअपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी मेंकहीं नही बेगानापन है।।

Friday, July 4, 2014

"रिश्ते और प्यार बदल जाते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
"रिश्ते और प्यार बदल जाते हैं"

युग के साथ-साथ, सारे हथियार बदल जाते हैं।
नौका खेने वाले, खेवनहार बदल जाते हैं।।

प्यार मुहब्बत के वादे सब निभा नहीं पाते हैं,
नीति-रीति के मानदण्ड, व्यवहार बदल जाते हैं।

"कंगाली में आटा गीला" भूख बहुत लगती है,
जीवनयापन करने के, आधार बदल जाते हैं।

जप-तप, ध्यान-योग, केबिल, टी.वी.-सी.डी. करते हैं,
पुरुष और महिलाओं के संसार बदल जाते हैं।

क्षमा-सरलता, धर्म-कर्म ही सच्चे आभूषण हैं,
आपाधापी में निष्ठा के, तार बदल जाते हैं।

फैसन की अंधी दुनिया ने, नंगापन अपनाया,
बेशर्मी की ग़फ़लत में, शृंगार बदल जाते हैं।

माता-पिता तरसते रहते, अपनापन पाने को,
चार दिनों में बेटों के, घर-बार बदल जाते हैं।

भइया बने पड़ोसी, बैरी बने ज़िन्दग़ीभर को,
भाई-भाई के रिश्ते और प्यार बदल जाते हैं।

Thursday, June 19, 2014

"प्यार करते हैं हम पत्थरों से" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
"प्यार करते हैं हम पत्थरों से"
बात करते हैं हम पत्थरों से सदा,
हम बसे हैं पहाड़ों के परिवार में।
प्यार करते हैं हम पत्थरों से सदा,
ये तो शामिल हमारे हैं संसार में।।

देवता हैं यहीये ही भगवान हैं,
सभ्यता से भरी एक पहचान हैं,
हमने इनको सजाया है घर-द्वार में।
ये तो शामिल हमारे हैं परिवार में।।

दर्द सहते हैं और आह भरते नही,
ये कभी सत्य कहने से डरते नही,
गर्जना है भरी इनकी हुंकार में।
ये तो शामिल हमारे हैं परिवार में।।

साथ करते नही सिरफिरों का कभी,
ध्यान धरते नही काफिरों का कभी,
ये तो रहते हैं भक्तों के अधिकार में।
ये तो शामिल हमारे हैं परिवार में।।

Tuesday, May 20, 2014

"दिन आ गये हैं प्यार के" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')


मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
दिन आ गये हैं प्यार के
खिल उठा सारा चमन, दिन आ गये हैं प्यार के।
रीझने के खीझने के, प्रीत और मनुहार के।।
 

चहुँओर धरती सज रही और डालियाँ हैं फूलती,
पायल छमाछम बज रहीं और बालियाँ हैं झूलती,
डोलियाँ सजने लगीं, दिन आ गये शृंगार के।
रीझने के खीझने के, प्रीत और मनुहार के।।


झूमते हैं मन-सुमन, गुञ्जार भँवरे कर रहे,
टेसुओं के फूल, वन में रंग अनुपम भर रहे,
गान कोयल गा रही, दिन आ गये अभिसार के।
रीझने के खीझने के, प्रीत और मनुहार के।।


कचनार की कच्ची कली भी, मस्त हो बल खा रही,
हँस रही सरसों निरन्तर, झूमकर कर इठला रही,
बज उठी वीणा मधुर सुर सज गये झंकार के।
रीझने के खीझने के, प्रीत और मनुहार के।। 

Monday, May 12, 2014

"काँटों की पहरेदारी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

 अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
एक गीत
"काँटों की पहरेदारी"
आशा और निराशा के क्षण,
पग-पग पर मिलते हैं।
काँटों की पहरेदारी में,
ही गुलाब खिलते हैं।

पतझड़ और बसन्त कभी,
हरियाली आती है।
सर्दी-गर्मी सहने का,
सन्देश सिखाती है।
यश और अपयश साथ-साथ,
दायें-बाये चलते हैं।
काँटो की पहरेदारी में,
ही गुलाब खिलते हैं।

जीवन कभी कठोर कठिन,
और कभी सरल सा है।
भोजन अमृततुल्य कभी,
तो कभी गरल सा है।
सागर के खारे जल में,
ही मोती पलते हैं।
काँटो की पहरेदारी में,
ही गुलाब खिलते हैं।

Wednesday, April 30, 2014

"जब याद किसी की आती है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

 अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
एक गीत
"जब याद किसी की आती है"
हार्ट अटैक आने से कुछ दिन पहले बॉडी देने लगती है संकेत
दिल में कुछ-कुछ होता है,
जब याद किसी की आती है।
मन सब सुध-बुध खोता है,
जब याद किसी की आती है।

गुलशन वीराना लगता है,
पागल परवाना लगता है,
भँवरा दीवाना लगता है,
दिल में कुछ-कुछ होता है,
जब याद किसी की आती है।

मधुबन डरा-डरा लगता है,
जीवन मरा-मरा लगता है,
चन्दा तपन भरा लगता है,
दिल में कुछ-कुछ होता है,
जब याद किसी की आती है।

नदियाँ जमी-जमी लगती हैं,
दुनियाँ थमी-थमी लगती हैं,
अँखियाँ नमी-नमी लगती हैं,
दिल में कुछ-कुछ होता है,
जब याद किसी की आती है।
मन सब सुध-बुध खोता है,
जब याद किसी की आती है।।

Saturday, April 26, 2014

चाँद-सितारे ला सकता हूँ (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
"चाँद-सितारे ला सकता हूँ" 
अपना माना है जब तुमको,
चाँद-सितारे ला सकता हूँ । 
तीखी-फीकी, जली-भुनी सी,
सब्जी भी खा सकता हूँ।

दर्शन करके चन्द्र-वदन का,
निकल पड़ा हूँ राहों पर,
बिना इस्तरी के कपड़ों में,
दफ्तर भी जा सकता हूँ।

गीत और संगीत बेसुरा,
साज अनर्गल लगते है,
होली वाली हँसी-ठिठोली,
मैं अब भी गा सकता हूँ।

माता-पिता तुम्हारे मुझको,
अपने जैसे लगते है,
प्रिये तम्हारी खातिर उनको,
घर भी ला सकता हूँ।

जीवन-जन्म दुखी था मेरा,
बिना तुम्हारे सजनी जी,
यदि तुम साथ निभाओ तो,
मैं अमृत भी पा सकता हूँ।

Tuesday, April 22, 2014

"बसन्त आया है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
लगता है बसन्त आया है!
हर्षित होकर राग भ्रमर ने गाया है!  
लगता है बसन्त आया है!!

नयनों में सज उठे सिन्दूरी सपने से,
कानों में बज उठे साज कुछ अपने से,
पुलकित होकर रोम-रोम मुस्काया है!
लगता है बसन्त आया है!!

खेतों ने परिधान बसन्ती पहना है,
आज धरा ने धारा नूतन गहना है,
आम-नीम पर बौर उमड़ आया है!
लगता है बसन्त आया है!!

पेड़ों ने सब पत्र पुराने झाड़ दिये हैं,
बैर-भाव के वस्त्र सुमन ने फाड़ दिये है,
होली की रंगोली ने मन भरमाया  है!
लगता है बसन्त आया है!!

Friday, April 18, 2014

"कोढ़ में खाज" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से

गीत





निर्दोष से प्रसून भी डरे हुए हैं आज।
चिड़ियों की कारागार में पड़े हुए हैं बाज।

अश्लीलता के गान नौजवान गा रहा,

चोली में छिपे अंग की गाथा सुना रहा,
भौंडे सुरों के शोर में, सब दब गये हैं साज।
चिड़ियों 
की 
कारागार में पड़े हुए हैं बाज।।


श्वान और विडाल जैसा मेल हो रहा,
नग्नता, निलज्जता का खेल हो रहा,
कृष्ण स्वयं द्रोपदी की लूट रहे लाज।
चिड़ियों की कारागार में पड़े हुए हैं बाज।।

भटकी हुई जवानी है भारत के लाल की,
ऐसी है दुर्दशा मेरे भारत - विशाल की,
आजाद और सुभाष के सपनों पे गिरी गाज।
चिड़ियों की कारागार में पड़े हुए हैं बाज।।

लिखने को बहुत कुछ है अगर लिखने को आयें,
लिख -कर कठोर सत्य किसे आज सुनायें,
दुनिया में सिर्फ मूर्ख के, सिर पे धरा है ताज।
चिड़ियों की कारागार में पड़े हुये हैं बाज।।

रोती पवित्र भूमि, आसमान रो रहा,
लगता है, घोड़े बेच के भगवान सो रहा,
अब तक तो मात्र कोढ़ था, अब हो गयी है खाज।
चिड़ियों की कारागार में पड़े हुए हैं बाज।।