श्रीमद्भागवद्गीता के सातवें अध्याय के २१ वें श्लोक में भगवान प्रत्येक देवता के प्रति श्रद्धा का बखान कर रहे हैं। स्वामी रामसुखदास जी ने इसकी बहुत ही सुंदर व्याख्या की है ।
श्लोक
जो- भक्त जिस -जिस देवता का श्रद्धा पूर्वक पूजन करना चाहता है ,उस- उस देवता के प्रति मैं उसकी श्रद्धा को दृढ़ कर देता हूँ ।
व्याख्या
भगवान कहते हैं ------जो- जो मनुष्य जिस- जिस देवता का भक्त होकर श्रद्धा पूर्वक भजन -पूजन करना चाहता है उस -उस मनुष्य की श्रद्धा उस -उस देवता के प्रति में अचल कर देता हूँ । वे दूसरों में न लगकर मेरे में ही लग जायें -------ऐसा मैं नही करता। यद्यपि उन देवताओं में लगने से कामना के कारण उनका कल्याण नही होता ,फिर भी मैं उनको उनमें लगा देता हूँ तो जो मेरे में श्रद्धा - प्रेम रखते हैं ,अपना कल्याण करना चाहते हैं ,उनकी श्रद्धा को मैं अपने प्रति कैसे दृढ़ नही करूंगा अर्थात अवश्य करूंगा, कारण कि मैं प्राणिमात्र का सुहृद हूँ ।
इस पर शंका होती है कि आप सबकी श्रद्धा अपने में ही क्यूँ नही दृढ़ करते?इस पर भगवान मानो ये कहते हैं कि अगर में सबकी श्रद्धा को अपने प्रति दृढ़ करूँ तो मनुष्यजन्म कि स्वतंत्रता और सार्थकता कहाँ रही ?तथा मेरी स्वार्थपरता का त्याग कहाँ हुआ? अगर लोगो को अपने में ही लगाने का आग्रह करें तो ये कोई बड़ी बात नही क्यूंकि ऐसा बर्ताव तो दुनिया के स्वार्थी जीवों का होता है । अतः मैं ऐसा स्वभाव सिखाना चाहता हूँ जिससे मनुष्य अपने स्वार्थों का त्याग करके अपनी पूजा प्रतिष्ठा में ही न लगा रहे ,किसी को पराधीन न बनाये।
अब दूसरी शंका ये उठती है कि आप उनकी श्रद्धा को उन देवताओं के प्रति दृढ़ कर देते हैं इससे आपकी साधुता तो सिद्ध हो गई ,पर उन जीवों का तो आपसे विमुख होने पर अहित ही हुआ न ? इसका समाधान ये है कि अगर में उनकी श्रद्धा को दूसरों से हटाकर अपने में लगाने का भावः रखूँगा तो उनकी मेरे में अश्रद्धा हो जायेगी। परन्तु अगर में अपने में लगाने का भावः नही रखूँगा और उन्हें स्वतंत्रता दूंगा तो जो बुद्धिमान होंगे वे मेरे इस बर्ताव को देखकर मेरी ओरे आकृष्ट होंगे। अतः उनके उद्धार का यही तरीका बढ़िया है।
अब तीसरी शंका यह होती है कि जब आप स्वयं उनकी श्रद्धा को दृढ़ कर देते हैं तो फिर कोई उस श्रद्धा को मिटा ही नही सकता। फिर तो उसका पतन होता ही चला जाएगा। इसका समाधान ये है कि मैं उनकी श्रद्दा को देवताओं के प्रति दृढ़ करता हूँ दूसरों के प्रति नही -------ऐसी बात नही है । मैं तो उनकी इच्छा के अनुसार ही उनकी श्रद्धा को दृढ़ करता हूँ और अपनी इच्छा को बदलने में मनुष्य स्वतंत्र है, योग्य है। इच्छा को बदलने में वे परवश ,निर्बल और अयोग्य नही है । अगर इच्छा को बदलने में वे परवश होते तो फिर मनुष्यजन्म की महिमा ही कहाँ रही ? और इच्छा (कामना) का त्याग करने की आज्ञा भी मैं कैसे दे सकता था।
श्लोक
जो- भक्त जिस -जिस देवता का श्रद्धा पूर्वक पूजन करना चाहता है ,उस- उस देवता के प्रति मैं उसकी श्रद्धा को दृढ़ कर देता हूँ ।
व्याख्या
भगवान कहते हैं ------जो- जो मनुष्य जिस- जिस देवता का भक्त होकर श्रद्धा पूर्वक भजन -पूजन करना चाहता है उस -उस मनुष्य की श्रद्धा उस -उस देवता के प्रति में अचल कर देता हूँ । वे दूसरों में न लगकर मेरे में ही लग जायें -------ऐसा मैं नही करता। यद्यपि उन देवताओं में लगने से कामना के कारण उनका कल्याण नही होता ,फिर भी मैं उनको उनमें लगा देता हूँ तो जो मेरे में श्रद्धा - प्रेम रखते हैं ,अपना कल्याण करना चाहते हैं ,उनकी श्रद्धा को मैं अपने प्रति कैसे दृढ़ नही करूंगा अर्थात अवश्य करूंगा, कारण कि मैं प्राणिमात्र का सुहृद हूँ ।
इस पर शंका होती है कि आप सबकी श्रद्धा अपने में ही क्यूँ नही दृढ़ करते?इस पर भगवान मानो ये कहते हैं कि अगर में सबकी श्रद्धा को अपने प्रति दृढ़ करूँ तो मनुष्यजन्म कि स्वतंत्रता और सार्थकता कहाँ रही ?तथा मेरी स्वार्थपरता का त्याग कहाँ हुआ? अगर लोगो को अपने में ही लगाने का आग्रह करें तो ये कोई बड़ी बात नही क्यूंकि ऐसा बर्ताव तो दुनिया के स्वार्थी जीवों का होता है । अतः मैं ऐसा स्वभाव सिखाना चाहता हूँ जिससे मनुष्य अपने स्वार्थों का त्याग करके अपनी पूजा प्रतिष्ठा में ही न लगा रहे ,किसी को पराधीन न बनाये।
अब दूसरी शंका ये उठती है कि आप उनकी श्रद्धा को उन देवताओं के प्रति दृढ़ कर देते हैं इससे आपकी साधुता तो सिद्ध हो गई ,पर उन जीवों का तो आपसे विमुख होने पर अहित ही हुआ न ? इसका समाधान ये है कि अगर में उनकी श्रद्धा को दूसरों से हटाकर अपने में लगाने का भावः रखूँगा तो उनकी मेरे में अश्रद्धा हो जायेगी। परन्तु अगर में अपने में लगाने का भावः नही रखूँगा और उन्हें स्वतंत्रता दूंगा तो जो बुद्धिमान होंगे वे मेरे इस बर्ताव को देखकर मेरी ओरे आकृष्ट होंगे। अतः उनके उद्धार का यही तरीका बढ़िया है।
अब तीसरी शंका यह होती है कि जब आप स्वयं उनकी श्रद्धा को दृढ़ कर देते हैं तो फिर कोई उस श्रद्धा को मिटा ही नही सकता। फिर तो उसका पतन होता ही चला जाएगा। इसका समाधान ये है कि मैं उनकी श्रद्दा को देवताओं के प्रति दृढ़ करता हूँ दूसरों के प्रति नही -------ऐसी बात नही है । मैं तो उनकी इच्छा के अनुसार ही उनकी श्रद्धा को दृढ़ करता हूँ और अपनी इच्छा को बदलने में मनुष्य स्वतंत्र है, योग्य है। इच्छा को बदलने में वे परवश ,निर्बल और अयोग्य नही है । अगर इच्छा को बदलने में वे परवश होते तो फिर मनुष्यजन्म की महिमा ही कहाँ रही ? और इच्छा (कामना) का त्याग करने की आज्ञा भी मैं कैसे दे सकता था।
बहुत सुन्दर उपदेश और संदेश!
ReplyDeleteनम्दना जी आपका आभार!
बहुत सुन्दर संदेश| धन्यवाद|
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