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Friday, November 29, 2013

"नया घाघरा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज से
एक गीत
"नया घाघरा

धानी धरती ने पहना नया घाघरा।
रूप कञ्चन कहीं हैकहीं है हरा।।

पल्लवित हो रहापेड़-पौधों का तन,
हँस रहा है चमनगा रहा है सुमन,
नूर ही नूर हैजंगलों में भरा।
रूप कञ्चन कहीं हैकहीं है हरा।।

देख मधुमास की यह बसन्ती छटा
शुक सुनाने लगेअपना सुर चटपटा,
पंछियों को मिला है सुखद आसरा।  
रूप कञ्चन कहीं हैकहीं है हरा।। 

देश-परिवेश सारा महकने लगा,
टेसू अंगार बनकर दहकने लगा
सात रंगों से सजने लगी है धरा।
रूप कञ्चन कहीं हैकहीं है हरा।।

Monday, November 25, 2013

"प्यार की बातें करें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज से
एक ग़ज़ल
"प्यार की बातें करें
वन्दना, आराधना उपहार की बातें करें।।
प्यार का मौसम है, आओ प्यार की बातें करें।

नेह की लेकर मथानी, सिन्धु का मन्थन करें,
छोड़ कर छल-छद्म, कुछ उपकार की बातें करें।

प्यार का मौसम है, आओ प्यार की बातें करें।।
आस का अंकुर उगाओ, दीप खुशियों के जलें,

प्रीत का संसार है, संसार की बातें करें।
प्यार का मौसम है, आओ प्यार की बातें करें।।

भावनाओं के नगर में, छेड़ दो वीणा के सुर,
घर सजायें स्वर्ग सा, मनुहार की बातें करें।

प्यार का मौसम है, आओ प्यार की बातें करें।।
कदम आगे तो बढ़ाओ, सामने मंजिल खड़ी,

जीत के माहौल में, क्यों हार की बातें करें।
प्यार का मौसम है, आओ प्यार की बातें करें।।

Thursday, November 21, 2013

"गीत गाना आ गया है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज से
एक ग़ज़ल
"गीत गाना आ गया है" 
अब हमें बातें बनाना आ गया है,
पत्थरों को गीत गाना आ गया है।

हसरतें छूने लगी आकाश को,
प्यार करने का ज़माना आ गया है।

लक्ष्य था मुश्किल, पहुँच से दूर था,
साधना हमको निशाना आ गया है।

मन-सुमन वीरान उपवन थे पड़े,
पंछियों को चहचहाना आ गया है।

हाथ लेकर हाथ में जब चल पड़े,
साथ उनको भी निभाना आ गया है।

ज़िन्दग़ी के जख़्म सारे भर गये,
घोंसला हमको सजाना आ गया है।

जब चटककर रूप कलियों ने निखारा,
साज गुलशन को बजाना आ गया है।

Sunday, November 17, 2013

"टूटा हुआ स्वप्न" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
"टूटा हुआ स्वप्न"
मेरे गाँव, गली आँगन में,
अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में,
कहीं नही बेगानापन है।।

घर के आगे पेड़ नीम का,
वैद्यराज सा खड़ा हुआ है।
माता जैसी गौमाता का,
खूँटा अब भी गड़ा हुआ है।
टेसू के फूलों से गुंथित,
तीनपात की हर डाली है।
घर के पीछे हरियाली है,
लगता मानो खुशहाली है।
मेरे गाँव, गली आँगन में,
अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में,
कहीं नही बेगानापन है।।

पीपल के नीचे देवालय,
जिसमें घण्टे सजे हुए हैं।
सांझ-सवेरे भजन-कीर्तन,
ढोल-मंजीरे बजे हुए हैं।
कहीं अजान सुनाई देती,
गुरू-वाणी का पाठ कहीं है।
प्रेम और सौहार्द परस्पर,
वैर-भाव का नाम नही है।
मेरे गाँव, गली आँगन में,
अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में,
कहीं नही बेगानापन है।।

विद्यालय में सबसे पहले,
ईश्वर का आराधन होता।
देश-प्रेम का गायन होता,
तन और मन का शोधन होता।
भेद-भाव और छुआ-छूत का,
सारा मैल हटाया जाता।
गणित और विज्ञान साथ में,
पर्यावरण पढ़ाया जाता।
मेरे गाँव, गली आँगन में,
अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में,
कहीं नही बेगानापन है।।

रोज शाम को दंगल-कुश्ती,
और कबड्डी खेली जाती।
योगासन के साथ-साथ ही,
दण्ड-बैठकें पेली जाती।
मैंने पूछा परमेश्वर से,
जन्नत की दुनिया दिखला दो।
चैन और आराम जहाँ हो,
मुझको वह सीढ़ी बतला दो।
मेरे गाँव, गली आँगन में,
अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में,
कहीं नही बेगानापन है।।

तभी गगन से दिया सुनाई,
तुम जन्नत में ही हो भाई।
मेरा वास इसी धरती पर,
जिसकी तुमने गाथा गाई।
तभी खुल गयी मेरी आँखें,
चारपाई दे रही गवाही।
सुखद-स्वप्न इतिहास बन गया,
छोड़ गया धुंधली परछाई।
मेरे गाँव, गली आँगन में,
अब तो बस अञ्जानापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में,
बसा हुआ दीवानापन है।।

कितना बदल गया है भारत,
कितने बदल गये हैं बन्दे।
मानव बन बैठे हैं दानव,
तन के उजले, मन के गन्दे।
वीर भगत सिंह के आने की,
अब तो आशा टूट गयी है।
गांधी अब अवतार धरेंगे,
अब अभिलाषा छूट गयी है।
सन्नाटा फैला आँगन में
आसमान में सूनापन है।
चारों तरफ प्रदूषण फैला,
व्यथित हो रहा मेरा मन है।।

मेरे गाँव, गली आँगन में,
अपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी में,
कहीं नही बेगानापन है।।

Wednesday, November 13, 2013

"गद्दार मेरा वतन बेच देंगे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')


मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज" से
एक ग़ज़ल
"गद्दार मेरा वतन बेच देंगे"
ये गद्दार मेरा वतन बेच देंगे।
ये गुस्साल ऐसे कफन बेच देंगे।

बसेरा है सदियों से शाखों पे जिसकी,
ये वो शाख वाला चमन बेच देंगे।

सदाकत से इनको बिठाया जहाँ पर,
ये वो देश की अंजुमन बेच देंगे।

लिबासों में मीनों के मोटे मगर हैं,
समन्दर की ये मौज-ए-जन बेच देंगे।

सफीना टिका आब-ए-दरिया पे जिसकी,
ये दरिया-ए गंग-औ-जमुन बेच देंगे।

जो कोह और सहरा बने सन्तरी हैं,
ये उनके दिलों का अमन बेच देंगे।

जो उस्तादी अहद-ए-कुहन हिन्द का है,
वतन का ये नक्श-ए-कुहन बेच देंगे।

लगा हैं इन्हें रोग दौलत का ऐसा,
बहन-बेटियों के ये तन बेच देंगे।

ये काँटे हैं गोदी में गुल पालते हैं,
लुटेरों को ये गुल-बदन बेच देंगे।

हो इनके अगर वश में वारिस जहाँ का,
ये उसके हुनर और फन बेच देंगे।

जुलम-जोर शायर पे हो गर्चे इनका,
ये उसके भी शेर-औ-सुखन बेच देंगे।

‘मयंक’ दाग दामन में इनके बहुत हैं,
ये अपने ही परिजन-स्वजन बेच देंगे।

Friday, November 8, 2013

"सवेरा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत

"
सवेरा"
दिन चार चाँदनी के,
फिर छायेगा अन्धेरा।
दो दिन की जिन्दगी में,
क्या पायेगा सवेरा।।

जीवन के इस सफर में,
मरुथल उजाड़ होंगे,
खाई-कुएँ भी होंगे,
ऊँचे पहाड़ होंगे,
चलना ही जिन्दगी है,
करना नही बसेरा।।

करना न कामनाएँ,
सपने नही सजाना,
आया है जो जगत में,
उसको पड़ा है जाना,
दुनिया है धर्मशाला,
कुछ भी नही है तेरा।।

पाया अगर है जीवन,
निष्काम बनके जीना,
सुख-दुख, सरल-गरल को,
चुप-चाप होके पीना,
काजल की कोठरी में,
उजला ही रखना डेरा।।

दिन चार चाँदनी के,
फिर छायेगा अन्धेरा।
दो दिन की जिन्दगी में,
क्या पायेगा सवेरा।।

Monday, November 4, 2013

"तुम्हें प्यार नही करते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत

"
तुम्हें प्यार नही करते हैं"

नैन मटकाते हैं ,
इजहार नही करते हैं।
सिर हिलाते है,
वो इन्कार नही करते हैं।

रोज टकराते हैं,
पगडण्डी पे आते-जाते,
इतने खुद्दार है,
इसरार नही करते हैं।

देखते हैं मुझे,
ऊपर से ही चोरी-चोरी,
क्यों है नफरत,
जो नजर चार नही करते हैं।

मैं पहल कैसे करूँ,
मेरी भी मजबूरी है,
कितने मगरूर हैं,
इकरार नही करते है।

कब तलक लोगे परीक्षा,
यूँ ही जज्बातों की,
जाओ पत्थर हो,
तुम्हें प्यार नही करते हैं।