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Tuesday, September 30, 2014

""टूटा स्वप्न-गीत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे गाँवगली-आँगन मेंअपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी मेंकहीं नही बेगानापन है।।

घर के आगे पेड़ नीम कावैद्यराज सा खड़ा हुआ है।
माता जैसी गौमाता काखूँटा अब भी गड़ा हुआ है।
टेसू के फूलों से गुंथिततीनपात की हर डाली है
घर के पीछे हरियाली हैलगता मानो खुशहाली है।
मेरे गाँवगली आँगन मेंअपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी मेंकहीं नही बेगानापन है।।

पीपल के नीचे देवालयजिसमें घण्टे सजे हुए हैं।
सांझ-सवेरे भजन-कीर्तन,ढोल-मंजीरे बजे हुए हैं।
कहीं अजान सुनाई देतीगुरू-वाणी का पाठ कहीं है।
प्रेम और सौहार्द परस्परवैर-भाव का नाम नही है।
मेरे गाँवगली आँगन मेंअपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी मेंकहीं नही बेगानापन है।।

विद्यालय में सबसे पहलेईश्वर का आराधन होता।
देश-प्रेम का गायन होतातन और मन का शोधन होता।
भेद-भाव और छुआ-छूत का,सारा मैल हटाया जाता।
गणित और विज्ञान साथ मेंपर्यावरण पढ़ाया जाता।
मेरे गाँवगली आँगन मेंअपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी मेंकहीं नही बेगानापन है।।

रोज शाम को दंगल-कुश्तीऔर कबड्डी खेली जाती।
योगासन के साथ-साथ हीदण्ड-बैठकें पेली जाती।
मैंने पूछा परमेश्वर सेजन्नत की दुनिया दिखला दो।
चैन और आराम जहाँ होमुझको वह सीढ़ी बतला दो।
मेरे गाँवगली आँगन मेंअपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी मेंकहीं नही बेगानापन है।।

तभी गगन से दिया सुनाईतुम जन्नत में ही हो भाई।
मेरा वास इसी धरती परजिसकी तुमने गाथा गाई।
तभी खुल गयी मेरी आँखेंचारपाई दे रही गवाही।
सुखद-स्वप्न इतिहास बन गयाछोड़ गया धुंधली परछाई।
मेरे गाँवगली आँगन मेंअब तो बस अञ्जानापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी मेंबसा हुआ दीवानापन है।।

कितना बदल गया है भारतकितने बदल गये हैं बन्दे।
मानव बन बैठे हैं दानवतन के उजलेमन के गन्दे।
वीर भगत सिंह के आने कीअब तो आशा टूट गयी है।
गांधी अब अवतार धरेंगेअब अभिलाषा छूट गयी है।
सन्नाटा फैला आँगन मेंआसमान में सूनापन है।
चारों तरफ प्रदूषण फैलाव्यथित हो रहा मेरा मन है।।
मेरे गाँवगली आँगन मेंअपनापन ही अपनापन है।
देश-वेश-परिवेश सभी मेंकहीं नही बेगानापन है।।

Saturday, August 16, 2014

"ग़ज़ल-आइने की क्या जरूरत" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')


रूप इतना खूबसूरत
आइने की क्या जरूरत

आ रहीं नज़दीक घड़ियाँ
जब बनेगा शुभमुहूरत

बैठकर जब बात होंगी
दूर होंगी सब कुदूरत


लाख पर्दों में छुपाओ
छिप नहीं पायेगी सूरत

दिल में हमने है समायी
आपकी सुन्दर सी सूरत

आज मेरे चाँद का है
"रूप" कितना खूबसूरत

Friday, July 4, 2014

"रिश्ते और प्यार बदल जाते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
"रिश्ते और प्यार बदल जाते हैं"

युग के साथ-साथ, सारे हथियार बदल जाते हैं।
नौका खेने वाले, खेवनहार बदल जाते हैं।।

प्यार मुहब्बत के वादे सब निभा नहीं पाते हैं,
नीति-रीति के मानदण्ड, व्यवहार बदल जाते हैं।

"कंगाली में आटा गीला" भूख बहुत लगती है,
जीवनयापन करने के, आधार बदल जाते हैं।

जप-तप, ध्यान-योग, केबिल, टी.वी.-सी.डी. करते हैं,
पुरुष और महिलाओं के संसार बदल जाते हैं।

क्षमा-सरलता, धर्म-कर्म ही सच्चे आभूषण हैं,
आपाधापी में निष्ठा के, तार बदल जाते हैं।

फैसन की अंधी दुनिया ने, नंगापन अपनाया,
बेशर्मी की ग़फ़लत में, शृंगार बदल जाते हैं।

माता-पिता तरसते रहते, अपनापन पाने को,
चार दिनों में बेटों के, घर-बार बदल जाते हैं।

भइया बने पड़ोसी, बैरी बने ज़िन्दग़ीभर को,
भाई-भाई के रिश्ते और प्यार बदल जाते हैं।

Tuesday, June 24, 2014

"आज से ब्लॉगिंग बन्द" (डॉ. रूपचंद्र शास्त्री 'मयंक')

मित्रों।
फेस बुक पर मेरे मित्रों में एक श्री केवलराम भी हैं। 
उन्होंने मुझे चैटिंग में आग्रह किया कि उन्होंने एक ब्लॉगसेतु के नाम से एग्रीगेटर बनाया है। अतः आप उसमें अपने ब्लॉग जोड़ दीजिए। 
मैेने ब्लॉगसेतु का स्वागत किया और ब्लॉगसेतु में अपने ब्लॉग जोड़ने का प्रयास भी किया। मगर सफल नहीं हो पाया। शायद कुछ तकनीकी खामी थी।
श्री केवलराम जी ने फिर मुझे याद दिलाया तो मैंने अपनी दिक्कत बता दी।
इन्होंने मुझसे मेरा ईमल और उसका पासवर्ड माँगा तो मैंने वो भी दे दिया।
इन्होंने प्रयास करके उस तकनीकी खामी को ठीक किया और मुझे बता दिया कि ब्लॉगसेतु के आपके खाते का पासवर्ड......है।
मैंने चर्चा मंच सहित अपने 5 ब्लॉगों को ब्लॉग सेतु से जोड़ दिया।
ब्लॉगसेतु से अपने 5 ब्लॉग जोड़े हुए मुझे 5 मिनट भी नहीं बीते थे कि इन महोदय ने कहा कि आप ब्लॉग मंच को ब्लॉग सेतु से हटा लीजिए।
मैंने तत्काल अपने पाँचों ब्लॉग ब्लॉगसेतु से हटा लिए।
अतः बात खत्म हो जानी चाहिए थी। 
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कुछ दिनों बाद मुझे मेल आयी कि ब्लॉग सेतु में ब्लॉग जोड़िए।
मैंने मेल का उत्तर दिया कि इसके संचालक भेद-भाव रखते हैं इसलिए मैं अपने ब्लॉग ब्लॉग सेतु में जोड़ना नहीं चाहता हूँ।
--
बस फिर क्या था श्री केवलराम जी फेसबुक की चैटिंग में शुरू हो गये।
--
यदि मुझसे कोई शिकायत थी तो मुझे बाकायदा मेल से सूचना दी जानी चाहिए थी । लेकिन ऐसा न करके इन्होंने फेसबुक चैटिंग में मुझे अप्रत्यक्षरूप से धमकी भी दी।
एक बानगी देखिए इनकी चैटिंग की....
"Kewal Ram
आदरणीय शास्त्री जी
जैसे कि आपसे संवाद हुआ था और आपने यह कहा था कि आप मेल के माध्यम से उत्तर दे देंगे लेकिन आपने अभी तक कोई मेल नहीं किया
जिस तरह से बिना बजह आपने बात को सार्जनिक करने का प्रयास किया है उसका मुझे बहुत खेद है
ब्लॉग सेतु टीम की तरफ से फिर आपको एक बार याद दिला रहा हूँ
कि आप अपनी बात का स्पष्टीकरण साफ़ शब्दों में देने की कृपा करें
कोई गलत फहमी या कोई नाम नहीं दिया जाना चाहिए
क्योँकि गलत फहमी का कोई सवाल नहीं है
सब कुछ on record है
इसलिए आपसे आग्रह है कि आप अपन द्वारा की गयी टिप्पणी के विषय में कल तक स्पष्टीकरण देने की कृपा करें 24/06/2014
7 : 00 AM तक
अन्यथा हमें किसी और विकल्प के लिए बाध्य होना पडेगा
जिसका मुझे भी खेद रहेगा
अपने **"
--
ब्लॉग सेतु के संचालकों में से एक श्री केवलराम जी ने मुझे कानूनी कार्यवाही करने की धमकी देकर इतना बाध्य कर दिया कि मैं ब्लॉगसेतु के संचालकों से माफी माँगूँ। 
जिससे मुझे गहरा मानसिक आघात पहुँचा है।
इसलिए मैं ब्लॉगसेतु से क्षमा माँगता हूँ।
साथ ही ब्लॉगिंग भी छोड़ रहा हूँ। क्योंकि ब्लॉग सेतु की यही इच्छा है कि जो ब्लॉगर प्रतिदिन अपना कीमती समय लगाकर हिन्दी ब्लॉगिंग को समृद्ध कर रहा है वो आगे कभी ब्लॉगिंग न करे।
मैंने जीवन में पहला एग्रीगेटर देखा जिसका एक संचालक बचकानी हरकत करता है और फेसबुक पर पहल करके चैटिंग में मुझे हमेशा परेशान करता है।
उसका नाम है श्री केवलराम, हिन्दी ब्लॉगिंग में पी.एचडी.।
इस मानसिक आघात से यदि मुझे कुछ हो जाता है तो इसकी पूरी जिम्मेदारी ब्लॉगसेतु और इससे जुड़े श्री केवलराम की होगी।
आज से ब्लॉगिंग बन्द।
और इसका श्रेय ब्लॉगसेतु को।
जिसने मुझे अपना कीमती समय और इंटरनेट पर होने वाले भारी भरकम बिल से मुक्ति दिलाने में मेरी मदद की।
धन्यवाद।

डॉ. रूपचंद्र शास्त्री "मयंक"

Thursday, June 19, 2014

"प्यार करते हैं हम पत्थरों से" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
"प्यार करते हैं हम पत्थरों से"
बात करते हैं हम पत्थरों से सदा,
हम बसे हैं पहाड़ों के परिवार में।
प्यार करते हैं हम पत्थरों से सदा,
ये तो शामिल हमारे हैं संसार में।।

देवता हैं यहीये ही भगवान हैं,
सभ्यता से भरी एक पहचान हैं,
हमने इनको सजाया है घर-द्वार में।
ये तो शामिल हमारे हैं परिवार में।।

दर्द सहते हैं और आह भरते नही,
ये कभी सत्य कहने से डरते नही,
गर्जना है भरी इनकी हुंकार में।
ये तो शामिल हमारे हैं परिवार में।।

साथ करते नही सिरफिरों का कभी,
ध्यान धरते नही काफिरों का कभी,
ये तो रहते हैं भक्तों के अधिकार में।
ये तो शामिल हमारे हैं परिवार में।।

Friday, June 6, 2014

"कुछ प्यार की बातें करें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज" से
एक ग़ज़ल
"कुछ प्यार की बातें करें"

ज़िन्दगी के खेल में, कुछ प्यार की बातें करें।
प्यार का मौसम हैआओ प्यार की बातें करें।।

नेह की लेकर मथानीसिन्धु का मन्थन करें,
छोड़ कर छल-छद्मकुछ उपकार की बातें करें।

आस के अंकुर उगाओअब सुमन के खेत में,
प्रीत का संसार हैशृंगार की बातें करें।

भावनाओं के नगर मेंगीत खुलकर गुनगुनाओ,
रूठने की रीत मेंमनुहार की बातें करें।

कदम आगे तो बढ़ाओसामने मंजिल खड़ी,
जीत के माहौल मेंक्यों हार की बातें करें।

थाल पूजा का सजाकर, वन्दना के साथ में,
दीन-दुखियों के सदा, उद्धार की बातें करें।

आए जब भी पर्व कोई, प्यार से उपहार दें,
छोडकर शिकवे-गिले, त्यौहार की बातें करें।

कामकाजी हो अगर तो, घर न लाओ काम को,
मिलके घर-परिवार में, परिवार की बातें करें।

रूप है नश्वर सभी का, चार दिन की चाँदनी।
छोड़कर इन्कार को, इक़रार की बातें करें।

Tuesday, May 27, 2014

"जीत के माहौल में क्यों हार की बातें करें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज" से
एक ग़ज़ल
"जीत के माहौल में क्यों हार की बातें करें"
सादगी के साथ में, शृंगार की बातें करें
जीत के माहौल में, क्यों हार की बातें करें

सोचने को उम्र सारी ही पड़ी है सामने,
प्यार का दिन है सुहाना, प्यार की बातें करें

रंग मौसम ने भरे तो, रोज ही मधुमास है,
रंज-ओ-ग़म को छोड़कर, त्यौहार की बातें करें

मन-सुमन अब मिल गये, गुञ्चे चमन में खिल गये,
आज के दिन हम, नये उपहार की बातें करें

प्रीत है इक आग, इसमें ताप जीवन भर रहे,
हम सदा सुर-ताल, मृदु झंकार की बातें करें

"रूप" कब तक साथ देगा, नगमग़ी बाज़ार में,
साथ में मिल-बैठकर, परिवार की बातें करें

Tuesday, May 20, 2014

"दिन आ गये हैं प्यार के" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')


मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
दिन आ गये हैं प्यार के
खिल उठा सारा चमन, दिन आ गये हैं प्यार के।
रीझने के खीझने के, प्रीत और मनुहार के।।
 

चहुँओर धरती सज रही और डालियाँ हैं फूलती,
पायल छमाछम बज रहीं और बालियाँ हैं झूलती,
डोलियाँ सजने लगीं, दिन आ गये शृंगार के।
रीझने के खीझने के, प्रीत और मनुहार के।।


झूमते हैं मन-सुमन, गुञ्जार भँवरे कर रहे,
टेसुओं के फूल, वन में रंग अनुपम भर रहे,
गान कोयल गा रही, दिन आ गये अभिसार के।
रीझने के खीझने के, प्रीत और मनुहार के।।


कचनार की कच्ची कली भी, मस्त हो बल खा रही,
हँस रही सरसों निरन्तर, झूमकर कर इठला रही,
बज उठी वीणा मधुर सुर सज गये झंकार के।
रीझने के खीझने के, प्रीत और मनुहार के।। 

Friday, May 16, 2014

"शाख वाला चमन बेच देंगे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज" से
एक ग़ज़ल
"गद्दार मेरा वतन बेच देंगे"
ये गद्दार मेरा वतन बेच देंगे।
ये गुस्साल ऐसे कफन बेच देंगे।

बसेरा है सदियों से शाखों पे जिसकी,
ये वो शाख वाला चमन बेच देंगे।

सदाकत से इनको बिठाया जहाँ पर,
ये वो देश की अंजुमन बेच देंगे।

लिबासों में मीनों के मोटे मगर हैं,
समन्दर की ये मौज-ए-जन बेच देंगे।

सफीना टिका आब-ए-दरिया पे जिसकी,
ये दरिया-ए गंग-औ-जमुन बेच देंगे।

जो कोह और सहरा बने सन्तरी हैं,
ये उनके दिलों का अमन बेच देंगे।

जो उस्तादी अहद-ए-कुहन हिन्द का है,
वतन का ये नक्श-ए-कुहन बेच देंगे।

लगा हैं इन्हें रोग दौलत का ऐसा,
बहन-बेटियों के ये तन बेच देंगे।

ये काँटे हैं गोदी में गुल पालते हैं,
लुटेरों को ये गुल-बदन बेच देंगे।

हो इनके अगर वश में वारिस जहाँ का,
ये उसके हुनर और फन बेच देंगे।

जुलम-जोर शायर पे हो गर्चे इनका,
ये उसके भी शेर-औ-सुखन बेच देंगे।

‘मयंक’ दाग दामन में इनके बहुत हैं,
ये अपने ही परिजन-स्वजन बेच देंगे।

Monday, May 12, 2014

"काँटों की पहरेदारी" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

 अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
एक गीत
"काँटों की पहरेदारी"
आशा और निराशा के क्षण,
पग-पग पर मिलते हैं।
काँटों की पहरेदारी में,
ही गुलाब खिलते हैं।

पतझड़ और बसन्त कभी,
हरियाली आती है।
सर्दी-गर्मी सहने का,
सन्देश सिखाती है।
यश और अपयश साथ-साथ,
दायें-बाये चलते हैं।
काँटो की पहरेदारी में,
ही गुलाब खिलते हैं।

जीवन कभी कठोर कठिन,
और कभी सरल सा है।
भोजन अमृततुल्य कभी,
तो कभी गरल सा है।
सागर के खारे जल में,
ही मोती पलते हैं।
काँटो की पहरेदारी में,
ही गुलाब खिलते हैं।