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Thursday, January 30, 2014

"भवसागर को कैसे पार करेगा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से 
   
एक गीत
जो बहती गंगा में अपने हाथ नही धो पाया, 
जीवनरूपी भवसागर को, कैसे पार करेगा? 
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जो मानव-चोला पाकर इन्सान नही हो पाया, 
वो कुदरत की संरचना को, कैसे प्यार करेगा?
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जो लेने का अभिलाषी है, देने में पामर है, 
जननी-जन्मभूमि का. वो कैसे आभार करेगा? 
वो कुदरत की संरचना को, कैसे प्यार करेगा?
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जो स्वदेश का खाता और परदेशों की गाता है, 
वो संकटमोचन बनकर, कैसे उद्धार करेगा? 
वो कुदरत की संरचना को, कैसे प्यार करेगा?
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जो खेतों और खलिहानों में, चिंगारी दिखलाता. 
प्रेम-प्रीत के घर का वो, कैसे आधार धरेगा? 
वो कुदरत की संरचना को, कैसे प्यार करेगा?
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बना मील का पत्थर जो, पथ को इंगित करता है,
वो संगी-साथी बनकर, कैसे व्यवहार करेगा?
वो कुदरत की संरचना को, कैसे प्यार करेगा?

Sunday, January 26, 2014

"प्यार लेकर आ रहे हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से 
   
एक गीत
"प्यार लेकर आ रहे हैं"
प्रीत और मनुहार लेकर आ रहे हैं।
हम हृदय में प्यार लेकर आ रहे हैं।।

गाँव का होने लगा शहरीकरण,
सब लुटे किरदार लेकर आ रहे हैं।
हम हृदय में प्यार लेकर आ रहे हैं।।

मत प्रदूषित ताल में गोता लगाना,
हम नवल जल धार लेकर आ रहे है।
हम हृदय में प्यार लेकर आ रहे हैं।।

जिन्दगी में फिर बहारें आयेंगी,
हम सुमन के हार लेकर आ रहे हैं।
हम हृदय में प्यार लेकर आ रहे हैं।।

Thursday, January 23, 2014

"हो गया क्यों देश ऐसा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से 
   
एक गीत
कल्पनाएँ डर गयी हैं,
भावनाएँ मर गयीं हैं, 

देख कर परिवेश ऐसा। 
हो गया क्यों देश ऐसा??

पक्षियों का चह-चहाना , 
लग रहा चीत्कार सा है।
षट्पदों का गीत गाना ,
आज हा-हा कार सा है।
गीत उर में रो रहे हैं, 
शब्द सारे सो रहे हैं,
देख कर परिवेश ऐसा। 
हो गया क्यों देश ऐसा??

एकता की गन्ध देता था,
सुमन हर एक प्यारा,
विश्व सारा एक स्वर से,
गीत गाता था हमारा,
कट गये सम्बन्ध प्यारे, 
मिट गये अनुबन्ध सारे ,
देख कर परिवेश ऐसा। 
हो गया क्यों देश ऐसा??

आज क्यों पागल,
स्वदेशी हो गया है?
रक्त क्यों अपना, 
विदेशी हो गया है?
पन्थ है कितना घिनौना, 
हो गया इन्सान बौना,
देख कर परिवेश ऐसा। 
हो गया क्यों देश ऐसा??

आज भी लोगों को,
पावस लग रही है,
चाँदनी फिर क्यों,
अमावस लग रही है?
शस्त्र लेकर सन्त आया, 
प्रीत का बस अन्त आया,
देख कर परिवेश ऐसा। 
हो गया क्यों देश ऐसा??

Saturday, January 18, 2014

"उदगार ढो रहे हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से 
   
एक गीत

ऊसर जमीन में हम, उपहार बो रहे हैं।

हम गीत और गजल के उदगार ढो रहे हैं।।

बन कर सजग सिपाही, हम दे रहे हैं पहरे,
हम मेट देंगे अपने, पर्वत के दाग गहरे,
उनको जगा रहे हैं, जो हार सो रहे हैं।
हम गीत और गजल के उदगार ढो रहे हैं।।

तूफान आँधियों में, हमने दिये जलाये,
फानूस बन गये हम, जब दीप झिलमिलाये,
हम प्रीत के सुजल से, अंगार धो रहे हैं।
हम गीत और गजल के उदगार ढो रहे हैं।।

मनके सभी पिरोये, टूटे सुजन मिलाये,
वीरान वाटिका में, रूठे सुमन खिलाये,
माला के तार में हम, अब प्यार पो रहे हैं।
हम गीत और गजल के उदगार ढो रहे हैं।।

Wednesday, January 15, 2014

"आइना छल और कपट को जानता है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से 
   
एक गीत
आइना छल और कपट को जानता है। 
मन सुमन की गन्ध को पहचानता है।। 

झूठ, मक्कारी, फरेबी फल रही, 
भेड़ियों को भेड़ बूढ़ी छल रही, 
जुल्म कब इंसानियत को मानता है। 
मन सुमन की गन्ध को पहचानता है।।

पिस रहा खुद्दार है, सुख भोगता गद्दार है, 
बदले हुए हालात में गुम हो गया किरदार है, 
बाप पर बेटा दुनाली तानता है। 
मन सुमन की गन्ध को पहचानता है।। 

बेसुरा सुर साज से आने लगा, 
पेड़ अपने फल स्वयं खाने लगा, 
भाई से तकरार भाई ठानता है। 
मन सुमन की गन्ध को पहचानता है।।

Saturday, January 11, 2014

"नवगीत-कुहरा घना है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
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दिन दुपहरी में दिवाकर अनमना है।
छा रहा मधुमास में कुहरा घना है।।

नीड़ में अब भी परिन्दे सो रहे,
फाग का शृंगार कितना है अधूरा,
शीत से हलकान बालक हो रहे,
चमचमाती रौशनी का रूप भूरा
रश्मियों के शाल की आराधना है।
छा रहा मधुमास में कुहरा घना है।।

सेंकता है आग फागुन में बुढ़ापा,
चन्द्रमा ने ओढ़ ली मोटी रजाई,
खिल नही पाया चमन ऋतुराज में,
टेसुओं ने भी नही रंगत सजाई,
कोप सर्दी का हवाओं में बना है।
छा रहा मधुमास में कुहरा घना है।।

Tuesday, January 7, 2014

"कुहरा और सूरज" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
"कुहरा और सूरज"
 15012010056
कुहरे और सूरज में,जमकर हुई लड़ाई। 
जीत गया कुहरा, सूरज ने मुँहकी खाई।। 

ज्यों ही सूरज अपनी कुछ किरणें चमकाता, 
लेकिन कुहरा इन किरणों को ढकता जाता, 
बासन्ती मौसम में सर्दी ने ली अँगड़ाई।
जीत गया कुहरा, सूरज ने मुँहकी खाई।। 

साँप-नेवले के जैसा ही युद्ध हो रहा, 
कभी सूर्य और कभी कुहासा क्रुद्ध हो रहा,
निर्धन की ठिठुरन से होती हाड़-कँपाई। 
जीत गया कुहरा, सूरज ने मुँहकी खाई।। 

कुछ तो चले गये दुनिया से, कुछ हैं जाने वाले, 
ऊनी वस्त्र कहाँ से लायें, जिनको खाने के लाले, 
सुरसा के मुँह सी बढ़ती ही जाती है मँहगाई। 
जीत गया कुहरा, सूरज ने मुँहकी खाई।।

Friday, January 3, 2014

"बादल घने हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
"बादल घने हैं"
 
कभी कुहरा, कभी सूरज, 
कभी आकाश में बादल घने हैं। 
दुःख और सुख भोगने को, 
जीव के तन-मन बने हैं।। 

आसमाँ पर चल रहे हैं, 
पाँव के नीचे धरा है, 
कल्पना में पल रहे हैं, 
सामने भोजन धरा है, 
पा लिया सब कुछ मगर, 
फिर भी बने हम अनमने हैं।
दुःख और सुख भोगने को, 
जीव के तन-मन बने हैं।। 

आयेंगे तो जायेंगे भी, 
ज़िन्दगी में खायेंगें भी, 
हाट मे सब कुछ सजा है, 
लायेंगे तो पायेंगे भी, 
धार निर्मल सामने है, 
किन्तु हम मल में सने हैं। 
दुःख और सुख भोगने को, 
जीव के तन-मन बने हैं।। 

देख कर करतूत अपनी, 
चाँद-सूरज हँस रहे हैं, 
आदमी को बस्तियों में, 
लोभ-लालच डस रहे हैं, 
काल की गोदी में, 
बैठे ही हुए सारे चने हैं। 
दुःख और सुख भोगने को, 
जीव के तन-मन बने हैं।।