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Saturday, March 29, 2014

"मुस्कराता हुआ अब वतन चाहिए" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
एक गीत
"लहलहाता हुआ वो चमन चाहिए"
मन-सुमन हों खिलेउर से उर हों मिले
लहलहाता हुआ वो चमन चाहिए। 
ज्ञान-गंगा बहेशन्ति और सुख रहे- 
मुस्कराता हुआ वो वतन चाहिए।१। 
दीप आशाओं के हर कुटी में जलें
राम-लछमन से बालकघरों में पलें
प्यार ही प्यार होप्रीत-मनुहार हो- 
देश में सब जगह अब अमन चाहिए। 
लहलहाता हुआ वो चमन चाहिए।२। 
छेनियों और हथौड़ों की झनकार हो
श्रम-श्रजन-स्नेह देंऐसे परिवार हों
खेतउपवन सदा सींचती ही रहे- 
ऐसी दरिया-ए गंग-औ-जमुन चाहिए। 
लहलहाता हुआ वो चमन चाहिए।३। 
आदमी से न इनसानियत दूर हो
पुष्पकलिका सुगन्धों से भरपूर हो
साज सुन्दर सजेंएकता से बजें
चेतना से भरेमन-औ-तन चाहिए। 
लहलहाता हुआ वो चमन चाहिए।४।

Tuesday, March 25, 2014

"ढाई आखर नही व्याकरण चाहिए" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से 
   
प्यार का राग आलापने के लिए
"ढाई आखर नही व्याकरण चाहिए"
मोक्ष के लक्ष को मापने के लिए,
जाने कितने जनम और मरण चाहिए ।
प्यार का राग आलापने के लिए,
शुद्ध स्वरताललयउपकरण चाहिए।।

लैला-मजनूँ को गुजरे जमाना हुआ,
किस्सा-ए हीर-रांझा पुराना हुआ,
प्रीत की पोथियाँ बाँचने के लिए-
ढाई आखर नही व्याकरण चाहिए ।
प्यार का राग आलापने के लिए,
शुद्ध स्वरताललयउपकरण चाहिए।।

सन्त का पन्थ होता नही है सरल,
पान करती सदा मीराबाई गरल,
कृष्ण और राम को जानने के लिए-
सूर-तुलसी सा ही आचरण चाहिए ।
प्यार का राग आलापने के लिए,
शुद्ध स्वरताललयउपकरण चाहिए।।

सच्चा प्रेमी वही जिसको लागी लगन,
अपनी परवाज में हो गया जो मगन,
कण्टकाकीर्ण पथ नापने के लिए-
शूल पर चलने वाले चरण चाहिए।।
प्यार का राग आलापने के लिए,
शुद्ध स्वरताललयउपकरण चाहिए।।

झर गये पात हों जिनके मधुमास में,
लुटगये हो वसन जिनके विश्वास में,
स्वप्न आशा भरे देखने के लिए-
नयन में नींद का आवरण चाहिए ।।
प्यार का राग आलापने के लिए,
शुद्ध स्वरताललयउपकरण चाहिए।।

Friday, March 21, 2014

"हमें संस्कार प्यारे हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से 
   
"हमें संस्कार प्यारे हैं"
उजाला ले के आये हो तो अपने मुल्क में छाँटो,
हमें अँधियार प्यारे हैं।
निवाला ले के आये हो तो अपने मुल्क में चाटो.
हमें किरदार प्यारे हैं।

नही जाती हलक के पार, भारी भीख की रोटी,
नही होगी यहाँ पर फिट, तुम्हारी सीख की गोटी,
बबाला ले के आये हो तो, अपने मुल्क में काटो,
हमें सरदार प्यारे हैं।

फिजाँ कैसी भी हो हर हाल में हम मस्त रहते हैं,
यहाँ के नागरिक हँसते हुए हर कष्ट सहते हैं.
गज़ाला ले के आये हो तो अपने मुल्क में बाँटो,
हमें दस्तार प्यारे हैं।

तुम अपने पास ही रक्खो, ये नंगी सभ्यता गन्दी,
हमारे पास है अपनी, हुनर वाली  अक्लमन्दी,
हमें संस्कार प्यारे हैं

Monday, March 17, 2014

"प्यार करते हैं हम पत्थरों से" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से 
   
"प्यार करते हैं हम पत्थरों से"
 
बात करते हैं हम पत्थरों से सदा,
हम बसे हैं पहाड़ों के परिवार में।
प्यार करते हैं हम पत्थरों से सदा,
ये तो शामिल हमारे हैं संसार में।।

देवता हैं यहीये ही भगवान हैं,
सभ्यता से भरी एक पहचान हैं,
हमने इनको सजाया है घर-द्वार में।
ये तो शामिल हमारे हैं परिवार में।।

दर्द सहते हैं और आह भरते नही,
ये कभी सत्य कहने से डरते नही,
गर्जना है भरी इनकी हुंकार में।
ये तो शामिल हमारे हैं परिवार में।।


साथ करते नही सिरफिरों का कभी,
ध्यान धरते नही काफिरों का कभी,
ये तो रहते हैं भक्तों के अधिकार में।
ये तो शामिल हमारे हैं परिवार में।।

Thursday, March 13, 2014

"दूषित हुआ वातावरण" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से 
   
"दूषित हुआ वातावरण"
सभ्यता, शालीनता के गाँव में, 
खो गया जाने कहाँ है आचरण? 
कर्णधारों की कुटिलता देखकर, 
देश का दूषित हुआ वातावरण। 

सुर हुए गायब, मृदुल शुभगान में, 

गन्ध है अपमान की, सम्मान में, 
आब खोता जा रहा है आभरण। 
खो गया जाने कहाँ है आचरण? 

शब्द अपनी प्राञ्जलता खो रहा, 

ह्रास अपनी वर्तनी का  हो रहा, 
रो रहा समृद्धशाली व्याकरण। 
खो गया जाने कहाँ है आचरण? 

लग रहे घट हैं भरे, पर रिक्त हैं, 

लूटने में राज को, सब लिप्त हैं, 
पंक से मैला हुआ सब आवरण। 
खो गया जाने कहाँ है आचरण?

Sunday, March 9, 2014

"नमन शैतान करते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से 
   
"नमन शैतान करते हैं"
हमारा आवरण जिसने, सजाया और सँवारा है,
हसीं पर्यावरण जिसने, बनाया और निखारा है।
बहुत आभार है उसका, बहुत उपकार है उसका,
दिया माटी के पुतले को, उसी ने प्राण प्यारा है।।

बहाई ज्ञान की गंगा, मधुरता ईख में कर दी,
कभी गर्मी, कभी वर्षा, कभी कम्पन भरी सरदी।
किया है रात को रोशन, दिये हैं चाँद और तारे,
अमावस को मिटाने को, दियों में रोशनी भर दी।।

दिया है दुःख का बादल, तो उसने ही दवा दी है,
कुहासे को मिटाने को, उसी ने तो हवा दी है।
जो रहते जंगलों में, भीगते बारिश के पानी में,
उन्ही के वास्ते झाड़ी मे कुटिया सी छवा दी है।।

सुबह और शाम को मच्छर सदा गुणगान करते हैं,
जगत के उस नियन्ता को, सदा प्रणाम करते हैं।
मगर इन्सान है खुदगर्ज कितना आज के युग में ,
विपत्ति जब सताती है, नमन शैतान करते है।।

Wednesday, March 5, 2014

"पहरे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से 
   
पहरे

हले पाबन्दियाँ थीं हँसने में, 
अब तो रोने में भी लगे पहरे। 
पहले बदनामियाँ थीं कहने में, 
अब तो सहने में भी लगे पहरे। 

कितने पैबन्द हैं लिबासों में, 
जिन्दगी बन्द चन्द साँसों मे, 
पहले हदबन्दियाँ थीं चलने में, 
अब ठहरने में भी लगे पहरे। 

शूल बिखरे हुए हैं राहों मे, 
नेक-नीयत नहीं निगाहों में 
पहले थीं खामियाँ सँवरने में, 
अब उजड़ने में भी लगे पहरे। 

अब हवाएँ जहर उगलतीं हैं, 
अब फिजाएँ कहर उगलतीं हैं, 
पहले गुटबन्दियाँ थीं कुनबे में, 
अब तो मिलनें में भी लगे पहरे।