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Monday, September 30, 2013

""उन्हें पढ़ना नहीं आता" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मित्रों!
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से

एक गीत
"उन्हें पढ़ना नहीं आता"
मिलन के गीत मन ही मन,
हमेशा गुन-गुनाता था।
हृदय का शब्द होठों पर,
कभी बिल्कुल न आता था।
मुझे कहना नही आया।
उन्हें सुनना नही भाया।।

कभी जो भूलना चाहा,
जुबां पर उनकी ही रट थी।
अन्धेरी राह में उनकी,
चहल कदमी की आहट थी।
मुझे सपना नही आया।
उन्हें अपना नही भाया।।

बहुत से पत्र लाया था,
मगर मजमून कोरे थे।
शमा के भाग्य में आये,
फकत झोंकें-झकोरे थे।
मुझे लिखना नही आया।
उन्हें पढ़ना नही आया।।

बने हैं प्रीत के क्रेता,
जमाने भर के सौदागर।
मुहब्बत है नही सौदा,
सितम कैसे करूँ उन पर।
मुझे लेना नही आया।
उन्हे देना नही भाया।।

Thursday, September 26, 2013

"बरबाद कर डाला" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मित्रों!
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से

एक गीत
--
"बरबाद कर डाला"
गुलों की चाह में,
अपना चमन बरबाद कर डाला।
वफा की राह में,
चैन-औ-अमन बरबाद कर डाला।।

चहकती थीं कभी,
गुलशन की छोटी-छोटी कलियाँ जब,
महकती थी कभी,
उपवन की छोटी-छोटी गलियाँ जब,
गगन की छाँह में,
शीतल पवन बरबाद कर डाला।
वफा की राह में,
चैन-औ-अमन बरबाद कर डाला।।

चमकती थी कभी बिजली,
मिरे काँधे पे झुक जाते,
झनकती थी कभी पायल,
तुम्हारे पाँव रुक जाते,
ठिठुर कर डाह में,
अपना सुमन बरबाद कर डाला।
वफा की राह में,
चैन-औ-अमन बरबाद कर डाला।।

सिसकते हैं अकेले अब,
तुम्ही को याद कर-कर के,
बिलखते हैं अकेले अब,
फकत फरयाद कर-कर के,
अलम की बाँह में,
अपना जनम बरबाद कर डाला।
वफा की राह में,
चैन-औ-अमन बरबाद कर डाला।।

Sunday, September 22, 2013

"दामाद बहुत ही भाता है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मित्रों!
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से

एक कविता
--
"दामाद बहुत ही भाता है"
 पाहुन का है अर्थ घुमक्कड़, 
यम का दूत कहाता है।
सास-ससुर की छाती पर, 
बैठा रहता जामाता है।।

खाता भी, गुर्राता भी है, 
सुनता नही सुनाता है। 
बेटी को दुख देता है तो, 
सीना फटता जाता है।।

चंचल अविरल घूम रहा है , 
ठहर नही ये पाता है।
धूर्त भले हो किन्तु मुझे, 
दामाद बहुत ही भाता है।।
 

Wednesday, September 18, 2013

"प्यार का आधार" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मित्रों!
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
एक गीत
"प्यार का आधार"
स्नेह से बढ़ता हमेशा स्नेह है!
प्यार का आधार केवल नेह है!!

शुष्क दीपक स्नेह बिन जलता नही,
चिकनाई बिन पुर्जा कोई चलता नही,
आत्मा के बिन अधूरी देह है!
प्यार का आधार केवल नेह है!!

पीढ़ियाँ हैं आज भूखी प्यार की,
स्नेह ही तो डोर है परिवार की,
नेह से ही खिलखिलाते गेह हैं!
प्यार का आधार केवल नेह है!!

नेह से बनते मधुर सम्बन्ध हैं,
कुटिलता से टूटते अनुबन्ध हैं,
मधुरता सबसे बड़ा अवलेह है!
प्यार का आधार केवल नेह है!!

नफरतों के नष्ट अंकुर को करो,
हसरतों में प्यार का पानी भरो,
दोस्ती का शत्रु ही सन्देह है!
प्यार का आधार केवल नेह है!!

Friday, September 13, 2013

"प्रीत का मौसम" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मित्रों!
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
एक ग़ज़ल
"प्रीत का मौसम"
दिल हमारा अब दिवाना हो गया है।
फिर शुरू मिलना-मिलाना हो गया है।।

हाथ लेकर चल  पड़े हम साथ में,
प्रीत का मौसमसुहाना हो गया है।

इक नशा साजिन्दगी में छा गया,
दर्द-औ-गमअपना पुराना हो गया है।

सब अधूरे् स्वप्न पूरे हो गये,
मीत सब अपनाजमाना हो गया है।

दिल के गुलशन में बहारें छा गयीं,
अब चमनअपना ठिकाना हो गया है।

तार मन-वीणा केझंकृत हो गये,
सुर में सम्भव गीत गाना हो गया है।

मन-सुमन का रूप अब खिलने लगा,
बन्द अब, आँसू बहाना हो गया है।

Monday, September 9, 2013

"जब याद किसी की आती है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मित्रों!
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
एक गीत
"जब याद किसी की आती है"

दिल में कुछ-कुछ होता है,
जब याद किसी की आती है।
मन सारी सुध-बुध खोता है,
जब याद किसी की आती है।

गुलशन वीराना लगता है,
पागल परवाना लगता है,
भँवरा दीवाना लगता है,
दिल में कुछ-कुछ होता है,
जब याद किसी की आती है।

मधुबन डरा-डरा लगता है,
जीवन मरा-मरा लगता है,
चन्दा तपन भरा लगता है,
दिल में कुछ-कुछ होता है,
जब याद किसी की आती है।

नदियाँ जमी-जमी लगती हैं,
दुनियाँ थमी-थमी लगती हैं,
अँखियाँ नमी-नमी लगती हैं,
दिल में कुछ-कुछ होता है,
जब याद किसी की आती है।


मन सारी सुध-बुध खोता है,
जब याद किसी की आती है।।

Thursday, September 5, 2013

"अमृत भी पा सकता हूँ" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मित्रों!
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
एक गीत
"अमृत भी पा सकता हूँ"
अपना माना है जब तुमको,
चाँद-सितारे ला सकता हूँ । 
तीखी-फीकी, जली-भुनी सी,
सब्जी भी खा सकता हूँ।

दर्शन करके चन्द्र-वदन का,
निकल पड़ा हूँ राहों पर,
बिना इस्तरी के कपड़ों में,
दफ्तर भी जा सकता हूँ।

गीत और संगीत बेसुरा,
साज अनर्गल लगते है,
होली वाली हँसी-ठिठोली,
मैं अब भी गा सकता हूँ।

माता-पिता तुम्हारे मुझको,
अपने जैसे लगते है,
प्रिये तम्हारी खातिर उनको,
घर भी ला सकता हूँ।

जीवन-जन्म दुखी था मेरा,
बिना तुम्हारे सजनी जी,
यदि तुम साथ निभाओ तो,
मैं अमृत भी पा सकता हूँ।

Monday, September 2, 2013

"बसन्त" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मित्रों!
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
एक गीत
"बसन्त"

हर्षित होकर राग भ्रमर ने गाया है!  
लगता है बसन्त आया है!!

नयनों में सज उठे सिन्दूरी सपने से,
कानों में बज उठे साज कुछ अपने से,
पुलकित होकर रोम-रोम मुस्काया है!
लगता है बसन्त आया है!!

खेतों ने परिधान बसन्ती पहना है,
आज धरा ने धारा नूतन गहना है,
आम-नीम पर बौर उमड़ आया है!
लगता है बसन्त आया है!!

पेड़ों ने सब पत्र पुराने झाड़ दिये हैं,
बैर-भाव के वस्त्र सुमन ने फाड़ दिये है,
होली की रंगोली ने मन भरमाया  है!
लगता है बसन्त आया है!!