अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
एक गीत
"जब याद किसी की आती है"
दिल में कुछ-कुछ होता है,
जब याद किसी की आती है।
मन सब सुध-बुध खोता है,
जब याद किसी की आती है।
गुलशन वीराना लगता है,
पागल परवाना लगता है,
भँवरा दीवाना लगता है,
दिल में कुछ-कुछ होता है,
जब याद किसी की आती है।
मधुबन डरा-डरा लगता है,
जीवन मरा-मरा लगता है,
चन्दा तपन भरा लगता है,
दिल में कुछ-कुछ होता है,
जब याद किसी की आती है।
नदियाँ जमी-जमी लगती हैं,
दुनियाँ थमी-थमी लगती हैं,
अँखियाँ नमी-नमी लगती हैं,
दिल में कुछ-कुछ होता है,
जब याद किसी की आती है।
मन सब सुध-बुध खोता है,
जब याद किसी की आती है।।
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Wednesday, April 30, 2014
"जब याद किसी की आती है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
Saturday, April 26, 2014
चाँद-सितारे ला सकता हूँ (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
"चाँद-सितारे ला सकता हूँ"
अपना माना है जब तुमको,
चाँद-सितारे ला सकता हूँ ।
तीखी-फीकी, जली-भुनी सी,
सब्जी भी खा सकता हूँ।
दर्शन करके चन्द्र-वदन का,
निकल पड़ा हूँ राहों पर,
बिना इस्तरी के कपड़ों में,
दफ्तर भी जा सकता हूँ।
गीत और संगीत बेसुरा,
साज अनर्गल लगते है,
होली वाली हँसी-ठिठोली,
मैं अब भी गा सकता हूँ।
माता-पिता तुम्हारे मुझको,
अपने जैसे लगते है,
प्रिये तम्हारी खातिर उनको,
घर भी ला सकता हूँ।
जीवन-जन्म दुखी था मेरा,
बिना तुम्हारे सजनी जी,
यदि तुम साथ निभाओ तो,
मैं अमृत भी पा सकता हूँ।
चाँद-सितारे ला सकता हूँ ।
तीखी-फीकी, जली-भुनी सी,
सब्जी भी खा सकता हूँ।
दर्शन करके चन्द्र-वदन का,
निकल पड़ा हूँ राहों पर,
बिना इस्तरी के कपड़ों में,
दफ्तर भी जा सकता हूँ।
गीत और संगीत बेसुरा,
साज अनर्गल लगते है,
होली वाली हँसी-ठिठोली,
मैं अब भी गा सकता हूँ।
माता-पिता तुम्हारे मुझको,
अपने जैसे लगते है,
प्रिये तम्हारी खातिर उनको,
घर भी ला सकता हूँ।
जीवन-जन्म दुखी था मेरा,
बिना तुम्हारे सजनी जी,
यदि तुम साथ निभाओ तो,
मैं अमृत भी पा सकता हूँ।
Tuesday, April 22, 2014
"बसन्त आया है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
लगता है बसन्त आया है!
हर्षित होकर राग भ्रमर ने गाया है!
लगता है बसन्त आया है!!
नयनों में सज उठे सिन्दूरी सपने से,
कानों में बज उठे साज कुछ अपने से,
पुलकित होकर रोम-रोम मुस्काया है!
लगता है बसन्त आया है!!
खेतों ने परिधान बसन्ती पहना है,
आज धरा ने धारा नूतन गहना है,
आम-नीम पर बौर उमड़ आया है!
लगता है बसन्त आया है!!
पेड़ों ने सब पत्र पुराने झाड़ दिये हैं,
बैर-भाव के वस्त्र सुमन ने फाड़ दिये है,
होली की रंगोली ने मन भरमाया है!
लगता है बसन्त आया है!!
Friday, April 18, 2014
"कोढ़ में खाज" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
गीत
चिड़ियों की कारागार में पड़े हुए हैं बाज।
अश्लीलता के गान नौजवान गा रहा,
चोली में छिपे अंग की गाथा सुना रहा,
भौंडे सुरों के शोर में, सब दब गये हैं साज।
चिड़ियों
की
कारागार में पड़े हुए हैं बाज।।
श्वान और विडाल जैसा मेल हो रहा,
नग्नता, निलज्जता का खेल हो रहा,
कृष्ण स्वयं द्रोपदी की लूट रहे लाज।
चिड़ियों की कारागार में पड़े हुए हैं बाज।।
भटकी हुई जवानी है भारत के लाल की,
ऐसी है दुर्दशा मेरे भारत - विशाल की,
आजाद और सुभाष के सपनों पे गिरी गाज।
चिड़ियों की कारागार में पड़े हुए हैं बाज।।
लिखने को बहुत कुछ है अगर लिखने को आयें,
लिख -कर कठोर सत्य किसे आज सुनायें,
दुनिया में सिर्फ मूर्ख के, सिर पे धरा है ताज।
चिड़ियों की कारागार में पड़े हुये हैं बाज।।
रोती पवित्र भूमि, आसमान रो रहा,
लगता है, घोड़े बेच के भगवान सो रहा,
अब तक तो मात्र कोढ़ था, अब हो गयी है खाज।
चिड़ियों की कारागार में पड़े हुए हैं बाज।।
Monday, April 14, 2014
"जी रहे पेड़-पौधे हमारे लिए" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
गीत
जी रहे पेड़-पौधे हमारे लिए,
दे रहे हैं हमें शुद्ध-शीतल पवन!
खिलखिलाता इन्हीं की बदौलत सुमन!!
रत्न अनमोल हैं ये हमारे लिए।
जी रहे पेड़-पौधे हमारे लिए।।
आदमी के सितम-जुल्म को सह रहे,
परकटे से तने निज कथा कह रहे,
कर रहे हम इन्हीं का हमेशा दमन!
सह रहे ये सभी कुछ हमारे लिए।
जी रहे पेड़-पौधे हमारे लिए।।
कर रहे जड़-जगत पर ये उपकार हैं,
वन सभी के लिए मुफ्त उपहार हैं,
रोग और शोक का होता इनसे शमन!
दूत हैं ये धरा के हमारे लिए।
जी रहे पेड़-पौधे हमारे लिए।।
ये हमारी प्रदूषित हवा पी रहे,
घोटकर हम इन्ही को दवा पी रहे,
देवताओं का हम कर रहे हैं दमन!
तन हवन कर रहे ये हमारे लिए।
जी रहे पेड़-पौधे हमारे लिए।।
दे रहे हैं हमें शुद्ध-शीतल पवन!
खिलखिलाता इन्हीं की बदौलत सुमन!!
रत्न अनमोल हैं ये हमारे लिए।
जी रहे पेड़-पौधे हमारे लिए।।
आदमी के सितम-जुल्म को सह रहे,
परकटे से तने निज कथा कह रहे,
कर रहे हम इन्हीं का हमेशा दमन!
सह रहे ये सभी कुछ हमारे लिए।
जी रहे पेड़-पौधे हमारे लिए।।
कर रहे जड़-जगत पर ये उपकार हैं,
वन सभी के लिए मुफ्त उपहार हैं,
रोग और शोक का होता इनसे शमन!
दूत हैं ये धरा के हमारे लिए।
जी रहे पेड़-पौधे हमारे लिए।।
ये हमारी प्रदूषित हवा पी रहे,
घोटकर हम इन्ही को दवा पी रहे,
देवताओं का हम कर रहे हैं दमन!
तन हवन कर रहे ये हमारे लिए।
जी रहे पेड़-पौधे हमारे लिए।।
Thursday, April 10, 2014
"शब्द कोई व्यापार नही है" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
गीत
"शब्द कोई व्यापार नही है"
जीवन की अभिव्यक्ति यही है,
क्या शायर की भक्ति यही है?
शब्द कोई व्यापार नही है,
तलवारों की धार नही है,
राजनीति परिवार नही है,
भाई-भाई में प्यार नही है,
क्या दुनिया की शक्ति यही है?
निर्धन-निर्धन होता जाता,
अपना आपा खोता जाता,
नैतिकता परवान चढ़ाकर,
बन बैठा धनवान विधाता,
क्या जग की अनुरक्ति यही है?
छल-प्रपंच को करता जाता,
अपनी झोली भरता जाता,
झूठे आँसू आखों में भर-
मानवता को हरता जाता,
हाँ कलियुग का व्यक्ति यही है?
क्या शायर की भक्ति यही है?
शब्द कोई व्यापार नही है,
तलवारों की धार नही है,
राजनीति परिवार नही है,
भाई-भाई में प्यार नही है,
क्या दुनिया की शक्ति यही है?
निर्धन-निर्धन होता जाता,
अपना आपा खोता जाता,
नैतिकता परवान चढ़ाकर,
बन बैठा धनवान विधाता,
क्या जग की अनुरक्ति यही है?
छल-प्रपंच को करता जाता,
अपनी झोली भरता जाता,
झूठे आँसू आखों में भर-
मानवता को हरता जाता,
हाँ कलियुग का व्यक्ति यही है?
Sunday, April 6, 2014
"कैसे जी पायेंगे कसाइयों के देश में" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
घनाक्षरी छन्द
"कैसे जी पायेंगे?"
नम्रता उदारता का पाठ, अब पढ़ाये कौन?
उग्रवादी छिपे जहाँ सन्तों के वेश में।
साधु और असाधु की पहचान अब कैसे हो,
दोनो ही सुसज्जित हैं, दाढ़ी और केश में।
कैसे खेलें रंग-औ-फाग, रक्त के लगे हैं दाग,
नगर, प्रान्त, गली-गाँव, घिरे हत्या-क्लेश में।
गांधी का अहिंसावाद, नेहरू का शान्तिवाद,
हुए निष्प्राण, हिंसा के परिवेश में ।
इन्दिरा की बलि चढ़ी, एकता में फूट पड़ी,
प्रजातन्त्र हुआ बदनाम देश-देश में।
मासूमों की हत्याये दिन-प्रतिदिन होती,
कैसे जी पायेंगे, कसाइयों के देश में।
उग्रवादी छिपे जहाँ सन्तों के वेश में।
साधु और असाधु की पहचान अब कैसे हो,
दोनो ही सुसज्जित हैं, दाढ़ी और केश में।
कैसे खेलें रंग-औ-फाग, रक्त के लगे हैं दाग,
नगर, प्रान्त, गली-गाँव, घिरे हत्या-क्लेश में।
गांधी का अहिंसावाद, नेहरू का शान्तिवाद,
हुए निष्प्राण, हिंसा के परिवेश में ।
इन्दिरा की बलि चढ़ी, एकता में फूट पड़ी,
प्रजातन्त्र हुआ बदनाम देश-देश में।
मासूमों की हत्याये दिन-प्रतिदिन होती,
कैसे जी पायेंगे, कसाइयों के देश में।
Wednesday, April 2, 2014
"भारत माँ के मधुर रक्त को कौन राक्षस चाट रहा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
एक कविता
भारत माँ के मधुर रक्त को कौन राक्षस चाट रहा
आज देश में उथल-पुथल क्यों,
क्यों हैं भारतवासी आरत?
कहाँ खो गया रामराज्य,
और गाँधी के सपनों का भारत?
आओ मिलकर आज विचारें,
कैसी यह मजबूरी है?
शान्ति वाटिका के सुमनों के,
उर में कैसी दूरी है?
क्यों भारत में बन्धु-बन्धु के,
लहू का आज बना प्यासा?
कहाँ खो गयी कर्णधार की,
मधु रस में भीगी भाषा?
कहाँ गयी सोने की चिड़िया,
भरने दूषित-दूर उड़ाने?
कौन ले गया छीन हमारे,
अधरों की मीठी मुस्काने?
किसने हरण किया गान्धी का,
कहाँ गयी इन्दिरा प्यारी?
प्रजातन्त्र की नगरी की,
क्यों आज दुखी जनता सारी?
कौन राष्ट्र का हनन कर रहा,
माता के अंग काट रहा?
भारत माँ के मधुर रक्त को,
कौन राक्षस चाट रहा?
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