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Friday, March 6, 2015

“फागुन सबके मन भाया है” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री मयंक')

होली आई, होली आई,
गुजिया, मठरी, बरफी लाई

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मीठे-मीठे शक्करपारे,
सजे -धजे पापड़ हैं सारे,

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चिप्स कुरकुरे और करारे,
दहीबड़े हैं प्यारे-प्यारे,
 
chips 
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तन-मन में मस्ती उभरी है,
पिस्ता बरफी हरी-भरी है.

Pista-Barfi
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पीले, हरे गुलाल लाल हैं,
रंगों से सज गये थाल हैं.
 
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कितने सुन्दर, कितने चंचल,
हाथों में होली की हलचल,

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फागुन सबके मन भाया है! 

होली का मौसम आया है!!

Monday, January 12, 2015

“लोभ-लालच डस रहे हैं” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')


कभी कुहरा, कभी सूरज, कभी आकाश में बादल घने हैं।
दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।।

आसमां पर चल रहे हैं, पाँव के नीचे धरा है,
कल्पना में पल रहे हैं, सामने भोजन धरा है,
पा लिया सब कुछ मगर, फिर भी बने हम अनमने हैं।
दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।।

आयेंगे तो जायेंगे भी, जो कमाया खायेंगें भी,
हाट मे सब कुछ सजा है, लायेंगे तो पायेंगे भी,
धार निर्मल सामने है, किन्तु हम मल में सने हैं।
दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।।

देख कर करतूत अपनी, चाँद-सूरज हँस रहे हैं,
आदमी को बस्तियों में, लोभ-लालच डस रहे हैं,
काल की गोदी में, बैठे ही हुए सारे चने हैं।
दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।।