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Monday, December 30, 2013

"राम सँवारे बिगड़े काम" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
"राम सँवारे बिगड़े काम"
ram
राम नाम है सुख का धाम।
राम सँवारे बिगड़े काम।।

असुर विनाशक, जगत नियन्ता,
मर्यादापालक अभियन्ता,
आराधक तुलसी के राम।
राम सँवारे बिगड़े काम।।

मात-पिता के थे अनुगामी,,
चौदह वर्ष रहे वनगामी,
किया भूमितल पर विश्राम।
राम सँवारे बिगड़े काम।।

कपटी रावण मार दिया था
लंका का उद्धार किया था,
राम नाम में है आराम।
राम सँवारे बिगड़े काम।।

जब भी अन्त समय आता है,
मुख पर राम नाम आता है,
गांधी जी कहते हे राम!
राम सँवारे बिगड़े काम।।

Thursday, December 26, 2013

"थकने लगी ज़िन्दग़ी है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
"थकने लगी ज़िन्दग़ी है"
जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!!
जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!!


कहीं है ज्वार और भाटा कहीं है, 
कहीं है सुमन और काँटा कहीं है,
नफरत जमाने से होने लगी है!
जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!!
जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!!

कहीं है अन्धेरा कहीं चाँदनी है,
कहीं शोक की धुन कहीं रागनी है,
मगर गुम हुई गीत से नगमगी है!
जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!!
जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!!


दरिन्दों की चक्की में, घुन पिस रहे हैं,
चन्दन को बगुले भगत घिस रहे हैं,
दिलों में इबादत नही तिश्नगी है!
जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!!
जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!!


धरा रो रही है, गगन रो रहा है,
अमन बेचकर आदमी सो रहा है,
सहमती-सिसकती हुई बन्दगी है!
जवानी में थकने लगी जिन्दगी है!!

जुगाड़ों से चलने लगी जिन्दगी है!!!

Sunday, December 22, 2013

"कैसे भाव भरूँ...?" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
"कैसे भाव भरूँ...?"
कैसे मैं दो शब्द लिखूँ और कैसे उनमें भाव भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?

मौसम की विपरीत चाल है,
धरा रक्त से हुई लाल है,
दस्तक देता कुटिल काल है,
प्रजा तन्त्र का बुरा हाल है,
बौने गीतों में कैसे मैं, लाड़-प्यार और चाव भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?

पंछी को परवाज चाहिए,
बेकारों को काज चाहिए,
नेता जी को राज चाहिए,
कल को सुधरा आज चाहिए,
उलझे ताने और बाने में, कैसे सरल स्वभाव भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?

भाँग कूप में पड़ी हुई है,
लाज धूप में खड़ी हुई है,
आज सत्यता डरी हुई है,
तोंद झूठ की बढ़ी हुई है,
रेतीले रजकण में कैसे, शक्कर के अनुभाव भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?

Wednesday, December 18, 2013

"सुहाना लगता है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
"सुहाना लगता है"
सबको अपना आज सुहाना लगता है। 
छिपा हुआ हर राज सुहाना लगता है।।

उडने को  आकाश पड़ा है,
पुष्पक भी तो पास खड़ा है
पंछी को परवाज सुहाना लगता है।
छिपा हुआ हर राज सुहाना लगता है।।

राजनीति की सनक चढी है,
लोलुपता की  ललक बढ़ी है,
काँटों का भी ताज सुहाना लगता है। 
छिपा हुआ हर राज सुहाना लगता है।।

गेहूँ पर आ गई बालियाँ,
हरे रंग में रंगी डालियाँ,
ऋतुओं में ऋतुराज सुहाना लगता है।
छिपा हुआ हर राज सुहाना लगता है।।

गुञ्जन करना और इठलाना,
भीना-भीना राग सुनाना,
मलयानिल का साज सुहाना लगता है।
छिपा हुआ हर राज सुहाना लगता है।।

तन-मन ने ली है अँगड़ाई,
कञ्चन सी काया गदराई,
होली का आगाज सुहाना लगता है।
छिपा हुआ हर राज सुहाना लगता है।। 

टेसू दहका अंगारा सा,
आशिक बहका आवारा सा,
बासन्ती अन्दाज सुहाना लगता है।
छिपा हुआ हर राज सुहाना लगता है।।

Sunday, December 15, 2013

"प्यार की बातें करें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से
एक ग़ज़ल
"प्यार की बातें करें"
सादगी के साथ हम, शृंगार की बातें करें
जीत के माहौल में, क्यों हार की बातें करें

सोचने को उम्र सारी ही पड़ी है सामने,
प्यार का दिन है सुहाना, प्यार की बातें करें

रंग मौसम ने भरे हैं, आ गया ऋतुराज है,
रंज-ओ-ग़म को छोड़कर, त्यौहार की बातें करें

मन-सुमन से मिल गये, गुञ्चे चमन में खिल गये,
आज के दिन हम, नये उपहार की बातें करें

प्रीत है इक आग, इसमें ताप जीवन भर रहे,
हम सदा सुर-ताल, मृदु झंकार की बातें करें

"रूप" कब तक साथ देगा, नगमग़ी बाज़ार में,
साथ में मिल-बैठकर, परिवार की बातें करें

Wednesday, December 11, 2013

"दिन आ गये हैं प्यार के" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
"दिन आ गये हैं प्यार के"
 
खिल उठा सारा चमन, दिन आ गये हैं प्यार के।
रीझने के खीझने के, प्रीत और मनुहार के।। 


चहुँओर धरती सज रही और डालियाँ हैं फूलती,
पायल छमाछम बज रहीं और बालियाँ हैं झूलती,
डोलियाँ सजने लगीं, दिन आ गये शृंगार के।
रीझने के खीझने के, प्रीत और मनुहार के।।
 
 
झूमते हैं मन-सुमन, गुञ्जार भँवरे कर रहे, 
टेसुओं के फूल, वन में रंग अनुपम भर रहे,
गान कोयल गा रही, दिन आ गये अभिसार के।
रीझने के खीझने के, प्रीत और मनुहार के।।
 

कचनार की कच्ची कली भी, मस्त हो बल खा रही,
हँस रही सरसों निरन्तर, झूमकर कर इठला रही,
बज उठी वीणा मधुर सुर सज गये झंकार के।
रीझने के खीझने के, प्रीत और मनुहार के।। 

Saturday, December 7, 2013

"बदल जाते हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
"बदल जाते हैं"
युग के साथ-साथ, सारे हथियार बदल जाते हैं।
नौका खेने वाले, खेवनहार बदल जाते हैं।।

प्यार मुहब्बत के वादे सब निभा नहीं पाते हैं,
नीति-रीति के मानदण्ड, व्यवहार बदल जाते हैं।

"कंगाली में आटा गीला" भूख बहुत लगती है,
जीवनयापन करने के, आधार बदल जाते हैं।

जप-तप, ध्यान-योग, केबल, टीवी-सीडी करते हैं,
पुरुष और महिलाओं के संसार बदल जाते हैं।

क्षमा-सरलता, धर्म-कर्म ही सच्चे आभूषण हैं,
आपाधापी में निष्ठा के, तार बदल जाते हैं।

फैसन की अंधी दुनिया ने, नंगापन अपनाया,
बेशर्मी की ग़फ़लत में, शृंगार बदल जाते हैं।

माता-पिता तरसते रहते, अपनापन पाने को,
चार दिनों में बेटों के, घर-बार बदल जाते हैं।

भइया बने पड़ोसी, बैरी बने ज़िन्दग़ीभर को,
भाई-भाई के रिश्ते और प्यार बदल जाते हैं।

Tuesday, December 3, 2013

"आ जाओ अब तो.." (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरा काव्यसंग्रह सुख का सूरज से
एक गी
आ जाओ अब तो...

मन मेरा बहुत उदास प्रिये!
आ जाओ अब तो पास प्रिये!

मेरे वीराने मधुवन में,
सुन्दर सा सुमन खिलाया क्यों?
जीवन पथ पर आगे बढ़ना,
बोलो मुझको सिखलाया क्यों?
अपनी साँसों के चन्दन से,
मेरे मन को महकाया क्यों?
तुम बन जाओ मधुमास प्रिये!
आ जाओ अब तो पास प्रिये!

मन में सोई चिंगारी को,
ज्वाला बनकर भड़काया क्यो?
मधुरिम बातों में उलझा कर,
मुझको इतना तडपाया क्यों?
सुन लो मेरी अरदास प्रिये!
आ जाओ अब तो पास प्रिये!

सपनों मे मेरे आ करके,
जीवन दर्शन सिखलाया क्यों?
नयनों में मेरे छा करके,
अपना मुखड़ा दिखलाया क्यों?
मुझ पर करलो विश्वास प्रिये।
आ जाओ अब तो पास प्रिये!!

Friday, November 29, 2013

"नया घाघरा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज से
एक गीत
"नया घाघरा

धानी धरती ने पहना नया घाघरा।
रूप कञ्चन कहीं हैकहीं है हरा।।

पल्लवित हो रहापेड़-पौधों का तन,
हँस रहा है चमनगा रहा है सुमन,
नूर ही नूर हैजंगलों में भरा।
रूप कञ्चन कहीं हैकहीं है हरा।।

देख मधुमास की यह बसन्ती छटा
शुक सुनाने लगेअपना सुर चटपटा,
पंछियों को मिला है सुखद आसरा।  
रूप कञ्चन कहीं हैकहीं है हरा।। 

देश-परिवेश सारा महकने लगा,
टेसू अंगार बनकर दहकने लगा
सात रंगों से सजने लगी है धरा।
रूप कञ्चन कहीं हैकहीं है हरा।।

Monday, November 25, 2013

"प्यार की बातें करें" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज से
एक ग़ज़ल
"प्यार की बातें करें
वन्दना, आराधना उपहार की बातें करें।।
प्यार का मौसम है, आओ प्यार की बातें करें।

नेह की लेकर मथानी, सिन्धु का मन्थन करें,
छोड़ कर छल-छद्म, कुछ उपकार की बातें करें।

प्यार का मौसम है, आओ प्यार की बातें करें।।
आस का अंकुर उगाओ, दीप खुशियों के जलें,

प्रीत का संसार है, संसार की बातें करें।
प्यार का मौसम है, आओ प्यार की बातें करें।।

भावनाओं के नगर में, छेड़ दो वीणा के सुर,
घर सजायें स्वर्ग सा, मनुहार की बातें करें।

प्यार का मौसम है, आओ प्यार की बातें करें।।
कदम आगे तो बढ़ाओ, सामने मंजिल खड़ी,

जीत के माहौल में, क्यों हार की बातें करें।
प्यार का मौसम है, आओ प्यार की बातें करें।।

Thursday, November 21, 2013

"गीत गाना आ गया है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज से
एक ग़ज़ल
"गीत गाना आ गया है" 
अब हमें बातें बनाना आ गया है,
पत्थरों को गीत गाना आ गया है।

हसरतें छूने लगी आकाश को,
प्यार करने का ज़माना आ गया है।

लक्ष्य था मुश्किल, पहुँच से दूर था,
साधना हमको निशाना आ गया है।

मन-सुमन वीरान उपवन थे पड़े,
पंछियों को चहचहाना आ गया है।

हाथ लेकर हाथ में जब चल पड़े,
साथ उनको भी निभाना आ गया है।

ज़िन्दग़ी के जख़्म सारे भर गये,
घोंसला हमको सजाना आ गया है।

जब चटककर रूप कलियों ने निखारा,
साज गुलशन को बजाना आ गया है।