![]() कभी कुहरा, कभी सूरज, कभी आकाश में बादल घने हैं। दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।। आसमां पर चल रहे हैं, पाँव के नीचे धरा है, कल्पना में पल रहे हैं, सामने भोजन धरा है, पा लिया सब कुछ मगर, फिर भी बने हम अनमने हैं। दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।। आयेंगे तो जायेंगे भी, जो कमाया खायेंगें भी, हाट मे सब कुछ सजा है, लायेंगे तो पायेंगे भी, धार निर्मल सामने है, किन्तु हम मल में सने हैं। दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।। देख कर करतूत अपनी, चाँद-सूरज हँस रहे हैं, आदमी को बस्तियों में, लोभ-लालच डस रहे हैं, काल की गोदी में, बैठे ही हुए सारे चने हैं। दुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।। |
Followers
Monday, January 12, 2015
“लोभ-लालच डस रहे हैं” (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
अच्छी कविता !
ReplyDeleteमेरी सोच मेरी मंजिल
Dhar nirmal Samane hai mint ham mal me sane hain. ..
ReplyDeletesateek.
कभी कुहरा, कभी सूरज, कभी आकाश में बादल घने हैं।
ReplyDeleteदुःख और सुख भोगने को, जीव के तन-मन बने हैं।।
जीव के जीवन से जुडी कमाल की पंक्तियाँ ........
बहुत अच्छे दोहे है, आप का बहुत धन्यवाद
ReplyDeleteVisit:- हिंदी ब्लॉग कंप्यूटर नोट्स