मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से
गीत
"लगे खाने-कमाने में"
लुटेरे ओढ़ पीताम्बर, लगे खाने-कमाने में।।
दया के द्वार पर, बैठे हुए हैं लोभ के पहरे,
मिटी सम्वेदना सारी, मनुज के स्रोत है बहरे,
सियासत के भिखारी व्यस्त हैं कुर्सी बचाने में।
लुटेरे ओढ़ पीताम्बर लगे खाने-कमाने में।।
जो सदियों से नही सी पाये, अपने चाकदामन को,
छुरा ले चल पड़े हैं हाथ वो, अब काटने तन को,
वो रहते भव्य भवनों में, कभी थे जो विराने में।
लुटेरे ओढ़ पीताम्बर लगे खाने-कमाने में।।
युवक मजबूर होकर खींचते हैं रात-दिन रिक्शा,
मगर कुत्ते और बिल्ले कर रहें हैं दूध की रक्षा,
श्रमिक का हो रहा शोषण, धनिक के कारखाने में।
लुटेरे ओढ़ पीताम्बर लगे खाने-कमाने में।।
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Monday, February 17, 2014
"लगे खाने-कमाने में" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बढ़िया प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आपका-
माने शरमाने लगे, सिर्फ स्वार्थमय भोग |
Deleteशारीरिक सुख-साधते, जाने-माने लोग |
जाने-माने लोग, कराएं परहित धंधे |
उच्चकोटि के ढोंग, फँसाये कोटिक अंधे |
बन बैठे भगवान्, बनायें विविध बहाने |
तन मन धन का दान, करोड़ों लगे कमाने ||
बहुत सुन्दर और सटीक रचना....
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