मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से
पहरे
पहले पाबन्दियाँ थीं हँसने में, अब तो रोने में भी लगे पहरे। पहले बदनामियाँ थीं कहने में, अब तो सहने में भी लगे पहरे। कितने पैबन्द हैं लिबासों में, जिन्दगी बन्द चन्द साँसों मे, पहले हदबन्दियाँ थीं चलने में, अब ठहरने में भी लगे पहरे। शूल बिखरे हुए हैं राहों मे, नेक-नीयत नहीं निगाहों में पहले थीं खामियाँ सँवरने में, अब उजड़ने में भी लगे पहरे। अब हवाएँ जहर उगलतीं हैं, अब फिजाएँ कहर उगलतीं हैं, पहले गुटबन्दियाँ थीं कुनबे में, अब तो मिलनें में भी लगे पहरे। |
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Wednesday, March 5, 2014
"पहरे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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सुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आदरणीय-
बहुत सुंदर.....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति कितने पैबन्द हैं लिबासों में,
ReplyDeleteजिन्दगी बन्द चन्द साँसों मे,
पहले हदबन्दियाँ थीं चलने में,
अब ठहरने में भी लगे पहरे।
वाह ...
KAVYASUDHA ( काव्यसुधा )