मित्रों!
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से ![]()
एक गीत
"सम्बन्ध"
सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।
अनुबन्ध आज सारे, बाजार हो गये हैं।। न वो प्यार चाहता है, न दुलार चाहता है, जीवित पिता से पुत्र, अब अधिकार चाहता है, सब टूटते बिखरते, परिवार हो गये हैं। सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।। घूँघट की आड़ में से, दुल्हन का झाँक जाना, भोजन परस के सबको, मनुहार से खिलाना, ये दृश्य देखने अब, दुश्वार हो गये हैं। सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।। वो सास से झगड़ती, ससुरे को डाँटती है, घर की बहू किसी का, सुख-दुख न बाटँती है, दशरथ, जनक से ज्यादा बेकार हो गये हैं। सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।। जीवन के हाँसिये पर, घुट-घुट के जी रहे हैं, माँ-बाप सहमे-सहमे, गम अपना पी रहे हैं, कल तक जो पालते थे, अब भार हो गये हैं। सम्बन्ध आज सारे, व्यापार हो गये हैं।। |
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Thursday, August 29, 2013
"सम्बन्ध" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
Sunday, August 25, 2013
"सच्चा-सच्चा प्यार कीजिए" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों!
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एक गीत
"सच्चा-सच्चा प्यार कीजिए"
![]()
प्रेम-प्रीत के चक्कर में पड़,
सीमाएँ मत पार कीजिए।
वैलेन्टाइन के अवसर पर,
सच्चा-सच्चा प्यार कीजिए।।
भोले-भाले प्रेमी को भरमाना,
अच्छी बात नही,
चिकनी-चुपड़ी बातों से बहलाना,
अच्छी बात नही,
ख्वाब दिखा कर आसमान के,
धरती से, मत वार कीजिए।
वैलेन्टाइन के अवसर पर,
सच्चा-सच्चा प्यार कीजिए।।
जन्म-जिन्दगी के साथी से,
झूठे वादे मत करना,
दिल के कोने में घुस कर,
नापाक इरादे मत करना,
हाथ थाम कर साथ निभाना,
प्रीत भरा व्यवहार कीजिए।
वैलेन्टाइन के अवसर पर,
सच्चा-सच्चा प्यार कीजिए।।
धड़कन जैसे बँधी साँस से,
ऐसा गठबन्धन कर लो,
पानी जैसे बँधा प्यास से,
ऐसा परिबन्धन कर लो,
सच्चे प्रेमी बन साथी से,
अपनी आँखें चार कीजिए।।
वैलेन्टाइन के अवसर पर,
सच्चा-सच्चा प्यार कीजिए।।
प्रेम-दिवस की भाँति,
बसन्ती सुमनों को खिलना होगा,
रैन-दिवस की भाँति,
हमें हर-रोज गले मिलना होगा,
हरी-भरी जीवन बगिया में,
मत कोई व्यापार कीजिए।
वैलेन्टाइन के अवसर पर,
सच्चा-सच्चा प्यार कीजिए।।
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Wednesday, August 21, 2013
"शूद्र वन्दना" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों!
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"शूद्र वन्दना"
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पूजनीय पाँव हैं, धरा जिन्हें निहारती।
सराहनीय शूद्र हैं, पुकारती है भारती।। चरण-कमल वो धन्य हैं, जो जिन्दगी को दें दिशा, वे चाँद-तारे धन्य हैं, हरें जो कालिमा निशा, प्रसून ये महान हैं, प्रकृति है सँवारती। सराहनीय शूद्र हैं, पुकारती है भारती।। जो चल रहें हैं, रात-दिन, वो चेतना के दूत है, समाज जिनसे है टिका, वे राष्ट्र के सपूत है, विकास के ये दीप हैं, मही इन्हें दुलारती। सराहनीय शूद्र हैं, पुकारती है भारती।। जो राम का चरित लिखें, वो राम के अनन्य हैं, जो जानकी को शरण दें, वो वाल्मीकि धन्य हैं, ये वन्दनीय हैं सदा, उतारो इनकी आरती। सराहनीय शूद्र हैं, पुकारती है भारती।। |
Saturday, August 17, 2013
"अब तक भटक रही हूँ मैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों!
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एक ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ!
"अब तक भटक रही हूँ मैं"
टेढ़े-मेढ़े गलियारों में.
अब तक भटक रही हूँ मैं। कब तलाश ये पूरी होगी, अब तक अटक रही हूँ मैं। ना जाने कितनों के मन में, अब तक खटक रही हूँ मैं। गुलशन के भँवरों में फँस कर, अब तक लटक रही हूँ मैं। यादें पीछा नही छोड़तीं, अब तक चटक रही हूँ मैं। जुल्फों में जो महक बसी थी, अब तक झटक रही हूँ मैं। |
Tuesday, August 13, 2013
"कोढ़ में खाज" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों!
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एक गीत पोस्ट कर रहा हूँ!
"कोढ़ में खाज"
निर्दोष से प्रसून भी डरे हुए हैं आज।
चिड़ियों की कारागार में पड़े हुए हैं बाज।
अश्लीलता के गान नौजवान गा रहा,
चोली में छिपे अंग की गाथा सुना रहा,
भौंडे सुरों के शोर में, सब दब गये हैं साज।
चिड़ियों की कारागार में पड़े हुए हैं बाज।।
श्वान और विडाल जैसा मेल हो रहा,
नग्नता, निलज्जता का खेल हो रहा,
कृष्ण स्वयं द्रोपदी की लूट रहे लाज।
चिड़ियों की कारागार में पड़े हुए हैं बाज।।
भटकी हुई जवानी है भारत के लाल की,
ऐसी है दुर्दशा मेरे भारत - विशाल की,
आजाद और सुभाष के सपनों पे गिरी गाज।
चिड़ियों की कारागार में पड़े हुए हैं बाज।।
लिखने को बहुत कुछ है अगर लिखने को आयें,
लिख -कर कठोर सत्य किसे आज सुनायें,
दुनिया में सिर्फ मूर्ख के, सिर पे धरा है ताज।
चिड़ियों की कारागार में पड़े हुये हैं बाज।।
रोती पवित्र भूमि, आसमान रो रहा,
लगता है, घोड़े बेच के भगवान सो रहा,
अब तक तो मात्र कोढ़ था, अब हो गयी है खाज।
चिड़ियों की कारागार में पड़े हुए हैं बाज।।
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Friday, August 9, 2013
"कलियुग का व्यक्ति" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों!
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एक गीत पोस्ट कर रहा हूँ!
"कलियुग का व्यक्ति"
क्या शायर की भक्ति यही है?
जीवन की अभिव्यक्ति यही है! शब्द कोई व्यापार नही है, तलवारों की धार नही है, राजनीति परिवार नही है, भाई-भाई में प्यार नही है, क्या दुनिया की शक्ति यही है? जीवन की अभिव्यक्ति यही है! निर्धन-निर्धन होता जाता, अपना आपा खोता जाता, नैतिकता परवान चढ़ाकर, बन बैठा धनवान विधाता, क्या जग की अनुरक्ति यही है? जीवन की अभिव्यक्ति यही है! छल-प्रपंच को करता जाता, अपनी झोली भरता जाता, झूठे आँसू आखों में भर- मानवता को हरता जाता, हाँ कलियुग का व्यक्ति यही है? जीवन की अभिव्यक्ति यही है! |
Tuesday, August 6, 2013
"कैसे जी पायेंगे?" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों!
आज अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से ![]()
एक कविता पोस्ट कर रहा हूँ!
"कैसे जी पायेंगे?"
नम्रता उदारता का पाठ, अब पढ़ाये कौन?
उग्रवादी छिपे जहाँ सन्तों के वेश में। साधु और असाधु की पहचान अब कैसे हो, दोनो ही सुसज्जित हैं, दाढ़ी और केश में। कैसे खेलें रंग-औ-फाग, रक्त के लगे हैं दाग, नगर, प्रान्त, गली-गाँव, घिरे हत्या-क्लेश में। गांधी का अहिंसावाद, नेहरू का शान्तिवाद, हुए निष्प्राण, हिंसा के परिवेश में । इन्दिरा की बलि चढ़ी, एकता में फूट पड़ी, प्रजातन्त्र हुआ बदनाम देश-देश में। मासूमों की हत्याये दिन-प्रतिदिन होती, कैसे जी पायेंगे, कसाइयों के देश में। |
Thursday, August 1, 2013
"कौन राक्षस चाट रहा" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
मित्रों!
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एक कविता पोस्ट कर रहा हूँ!
"कौन राक्षस चाट रहा?
क्यों हैं भारतवासी आरत? कहाँ खो गया रामराज्य, और गाँधी के सपनों का भारत? आओ मिलकर आज विचारें, कैसी यह मजबूरी है? शान्ति वाटिका के सुमनों के, उर में कैसी दूरी है? क्यों भारत में बन्धु-बन्धु के, लहू का आज बना प्यासा? कहाँ खो गयी कर्णधार की, मधु रस में भीगी भाषा? कहाँ गयी सोने की चिड़िया, भरने दूषित-दूर उड़ाने? कौन ले गया छीन हमारे, अधरों की मीठी मुस्काने? किसने हरण किया गान्धी का, कहाँ गयी इन्दिरा प्यारी? प्रजातन्त्र की नगरी की, क्यों दुखिया जनता सारी? कौन राष्ट्र का हनन कर रहा, माता के अंग काट रहा? भारत माँ के मधुर रक्त को, कौन राक्षस चाट रहा? |
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