मित्रों!
अपने काव्य संकलन सुख का सूरज से
एक ग़ज़ल पोस्ट कर रहा हूँ!
"अब तक भटक रही हूँ मैं"
टेढ़े-मेढ़े गलियारों में.
अब तक भटक रही हूँ मैं। कब तलाश ये पूरी होगी, अब तक अटक रही हूँ मैं। ना जाने कितनों के मन में, अब तक खटक रही हूँ मैं। गुलशन के भँवरों में फँस कर, अब तक लटक रही हूँ मैं। यादें पीछा नही छोड़तीं, अब तक चटक रही हूँ मैं। जुल्फों में जो महक बसी थी, अब तक झटक रही हूँ मैं। |
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Saturday, August 17, 2013
"अब तक भटक रही हूँ मैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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भूले-बिसरे मंजर ,
ReplyDeleteअच्छी रचना ,शुभकामनाएं
ReplyDeletelatest os मैं हूँ भारतवासी।
latest post नेता उवाच !!!
ReplyDeleteजुल्फों में जो महक बसी थी,
अब तक झटक रही हूँ मैं।
बढ़िया है गजल।