मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
आइना छल और कपट को जानता है।
मन सुमन की गन्ध को पहचानता है।।
झूठ, मक्कारी, फरेबी फल रही,
भेड़ियों को भेड़ बूढ़ी छल रही,
जुल्म कब इंसानियत को मानता है।
मन सुमन की गन्ध को पहचानता है।।
पिस रहा खुद्दार है, सुख भोगता गद्दार है,
बदले हुए हालात में गुम हो गया किरदार है,
बाप पर बेटा दुनाली तानता है।
मन सुमन की गन्ध को पहचानता है।।
बेसुरा सुर साज से आने लगा,
पेड़ अपने फल स्वयं खाने लगा,
भाई से तकरार भाई ठानता है।
मन सुमन की गन्ध को पहचानता है।।
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Wednesday, January 15, 2014
"आइना छल और कपट को जानता है" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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आज के यथार्थ को दर्शाता बेहतरीन गीत...साधुवाद!!
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