मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
"बादल घने हैं"
कभी कुहरा, कभी सूरज,
कभी आकाश में बादल घने हैं।
दुःख और सुख भोगने को,
जीव के तन-मन बने हैं।।
आसमाँ पर चल रहे हैं,
पाँव के नीचे धरा है,
कल्पना में पल रहे हैं,
सामने भोजन धरा है,
पा लिया सब कुछ मगर,
फिर भी बने हम अनमने हैं।
दुःख और सुख भोगने को,
जीव के तन-मन बने हैं।।
आयेंगे तो जायेंगे भी,
ज़िन्दगी में खायेंगें भी,
हाट मे सब कुछ सजा है,
लायेंगे तो पायेंगे भी,
धार निर्मल सामने है,
किन्तु हम मल में सने हैं।
दुःख और सुख भोगने को,
जीव के तन-मन बने हैं।।
देख कर करतूत अपनी,
चाँद-सूरज हँस रहे हैं,
आदमी को बस्तियों में,
लोभ-लालच डस रहे हैं,
काल की गोदी में,
बैठे ही हुए सारे चने हैं।
दुःख और सुख भोगने को,
जीव के तन-मन बने हैं।।
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Friday, January 3, 2014
"बादल घने हैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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बहुत सुन्दर गुरुजी
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteआभार आपका-
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (4-1-2014) "क्यों मौन मानवता" : चर्चा मंच : चर्चा अंक : 1482 पर होगी.
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
सादर...!
ReplyDeleteदेख कर करतूत अपनी,
चाँद-सूरज हँस रहे हैं,
आदमी को बस्तियों में,
लोभ-लालच डस रहे हैं,
काल की गोदी में,
बैठे ही हुए सारे चने हैं।
दुःख और सुख भोगने को,
जीव के तन-मन बने हैं।।
बहुत सुन्दर है।