मेरे काव्यसंग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत
जो बहती गंगा में अपने हाथ नही धो पाया,
जीवनरूपी भवसागर को, कैसे पार करेगा?
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जो मानव-चोला पाकर इन्सान नही हो पाया,
वो कुदरत की संरचना को, कैसे प्यार करेगा?
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जो लेने का अभिलाषी है, देने में पामर है,
जननी-जन्मभूमि का. वो कैसे आभार करेगा?
वो कुदरत की संरचना को, कैसे प्यार करेगा?
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जो स्वदेश का खाता और परदेशों की गाता है,
वो संकटमोचन बनकर, कैसे उद्धार करेगा?
वो कुदरत की संरचना को, कैसे प्यार करेगा?
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जो खेतों और खलिहानों में, चिंगारी दिखलाता.
प्रेम-प्रीत के घर का वो, कैसे आधार धरेगा?
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Thursday, January 30, 2014
"भवसागर को कैसे पार करेगा" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')
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