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Thursday, October 31, 2013

"याद बहुत आते हैं" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "सुख का सूरज" से
एक गीत

"याद बहुत आते हैं"

गाँवों की गलियाँ, चौबारे,
याद बहुत आते हैं।
कच्चे-घर और ठाकुरद्वारे,
याद बहुत आते हैं।।

छोड़ा गाँव, शहर में आया,
आलीशान भवन बनवाया।
मिली नही शीतल सी छाया,
नाहक ही सुख-चैन गँवाया।
बूढ़ा बरगद, काका-अंगद,
याद बहुत आते हैं।।

अपनापन बन गया बनावट,
रिश्तेदारी टूट रहीं हैं।
प्रेम-प्रीत बन गयी दिखावट,
नातेदारी छूट रहीं हैं।
गौरी गइया, मिट्ठू भइया,
याद बहुत आते हैं।।

भोर हुई, चिड़ियाँ भी बोलीं,
किन्तु शहर अब भी अलसाया।
शीतल जल के बदले कर में,
गर्म चाय का प्याला आया।
खेत-अखाड़े, हरे सिंघाड़े,
याद बहुत आते हैं।।

चूल्हा-चक्की, रोटी-मक्की,
कब का नाता तोड़ चुके हैं।
मटकी में का ठण्डा पानी,
सब ही पीना छोड़ चुके हैं।
नदिया-नाले, संगी-ग्वाले,
याद बहुत आते हैं।।

घूँघट में से नयी बहू का,
पुलकित हो शरमाना।
सास-ससुर को खाना खाने,
को आवाज लगाना।
हँसी-ठिठोली, फागुन-होली,
याद बहुत आते हैं।।

7 comments:

  1. nice collection computer and internet ke naye tips and tricks ke liye dhekhe www.hinditechtrick.blogspot.com

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  2. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (01-11-2013) को "चर्चा मंचः अंक -1416" पर लिंक की गयी है,कृपया पधारे.वहाँ आपका स्वागत है.

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  3. कहाँ गये वो लोग ……सुन्दर अभिव्यक्ति

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  4. चूल्हा-चक्की, रोटी-मक्की,
    कब का नाता तोड़ चुके हैं।
    मटकी में का ठण्डा पानी,
    सब ही पीना छोड़ चुके हैं।
    नदिया-नाले, संगी-ग्वाले,
    याद बहुत आते हैं।।

    घूँघट में से नयी बहू का,
    पुलकित हो शरमाना।
    सास-ससुर को खाना खाने,
    को आवाज लगाना।
    हँसी-ठिठोली, फागुन-होली,
    याद बहुत आते हैं।।

    सुन्दर अप्रतिम श्रृंगार किए है पूरी रचना भाव और शैली का।


    परम्परा हो गईं बाँझ सब

    पर बचपन के सांझ सकारे ,

    गलियाँ सब चौबारे , याद बहुत आते हैं।

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  5. चूल्हा-चक्की, रोटी-मक्की,
    कब का नाता तोड़ चुके हैं।
    मटकी में का ठण्डा पानी,
    सब ही पीना छोड़ चुके हैं।
    नदिया-नाले, संगी-ग्वाले,
    याद बहुत आते हैं।।

    घूँघट में से नयी बहू का,
    पुलकित हो शरमाना।
    सास-ससुर को खाना खाने,
    को आवाज लगाना।
    हँसी-ठिठोली, फागुन-होली,
    याद बहुत आते हैं।।

    सुन्दर अप्रतिम श्रृंगार किए है पूरी रचना भाव और शैली का।


    परम्परा हो गईं बाँझ सब

    पर बचपन के सांझ सकारे ,

    गलियाँ सब चौबारे , याद बहुत आते हैं।

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  6. क्या बात है। कविता में गांव झांकता हुआ सा लगा। उत्कृष्ट रचना।

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  7. वाह...अति उत्तम...दीवाली की शुभकामनाएं..

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